Saturday 30 December 2017

बंजारे गाते रहेंगे तुम सुन सको तो सुनना

            


दिन भर ज़िन्दगी की धूणी तापते-तापते बंजारे शाम होने से पहले फिर से अपने पेट को लाल अंगोछिये से कसके बांधकर निकल पड़ते है क्योंकि उन्हें पता है रात भर रेत के फिसलने की आवाजों को सुनना सबसे दर्दनाक होता है। उन्हें आज भी यही लगता है कि अँधेरे से भी ज्यादा डरावनी लगती है भूखे पेट की धंसी हुई अँधेरी-खोखली आँखें। जिसमें दुनिया की सबसे जहरीली वेदना छटपटा रही होती है।

इसलिए वो रात में बच्चों को सुनाई जाने वाली लोरी को
बस्ती के तमाम नुक्कड़ों से गुजरते हुए ऊँचे आलापों में गा देते है। लोग समझते है कि वो अपना सौदा बेचने को पुकार रहे है पर हकीकत में वो अपने दड़बे की खुशामदी के लिए आकुल कंठों से कोई प्रार्थना कर रहे होते है। 

क्या तुमने कभी अपने भीतरी कानों से सुनी है उनके गाने के आरोह-अवरोहों के बीच सप्तक से बहुत ऊपर को उठती हुई कोई राग-रागिनी..?? 

अगर नहीं, तो तुमने बहुत कुछ गंवा दिया है जो इस धरती पर सुनने लायक मौलिक और प्राकृत था। 

#बंजारे_गाते_रहेंगे_सुन_सको_तो_सुनना

Friday 29 December 2017

क्या हमारा दिमाग धोखेबाज है ???

कुछ सवाल होते है जिनके उत्तर खोजते हुए लगता है जैसे जादू खोज रहे है. जादू?? असल में ये जादू भी होता कहाँ है? उत्तर साफ़ है। हमारी आँखों में, हमारे दिमाग में। जब दिमाग और आँखें दोनों एक ही चीज़ को एक ही तरीके से देखने लग जाए तो वो सब जादू सरीखा ही लगता है।  कुछ दिन पहले कुछ ऐसा ही देखा और महसूस किया। मैं बचपन से सोचता रहा कि इस दुनिया में इतने सारे लोग है और सब अलग-अलग सोचते, समझते और देखते है तो क्या कभी ऐसा भी होता है कि दो लोग एक जैसा ही काम करे और उनके काम का प्री-वर्क भी एक सरीखा ही हो?? 

प्री-वर्क माने काम से पूर्व, काम हो जाने का आभास, यह एक भ्रान्ति होती है लेकिन असल में ये काम करने की सुनियोजितता को परखने का भी तरीका है। मैं जूझता रहा, मुझे उत्तर नहीं मिला था। उस दिन शायद मैं अपने उत्तर के बहुत करीब पहुँच गया था। जब मैंने Legend DreamWorks और  Tanuj Vyas की बनायी एक शॉर्ट फिल्म देखी। जिसका नाम है थिंक पॉवर।  #Think_Power में उन्होंने अपने रचनात्मक तरीके से इसी सवाल का उत्तर देने की बखूबी जायज़ कोशिश की है।

फिल्म का दृश्य समझाते तनुज व्यास 


क्या-क्या है इस फिल्म में- 

लगभग बीस मिनट की इस शॉर्ट फिल्म में बहुत कुछ है जो नया है या नए के समकक्ष है। हमारा दिमाग बहुत ताकतवर है, वो हमसे कुछ भी करवा सकता है। इसलिए इस शरीर में दिमाग के साथ-साथ दिल भी दिया है ताकि सोच और संवेदना का सही ताना बाना बना रहे और हम आदमी बने हुए इस समाज की व्यवस्था में सुलझते-उलझते रहे। दिमाग और दिल में संतुलन कैसे बनाया जा सकता है? यह जवाब फिल्म में अँधेरे में जुगनूं सा चमकता साफ़-साफ़ नज़र आता है। तमाम घटनाओं को सरसता से पार करते हुए यह फिल्म अपने अंत में एक और सवाल दाग देती है, जो अपने आप में बहुत बड़ा है कि हमारा दिमाग हमें कैसे धोखा दे सकता है। इस शॉर्ट फिल्म में कई किरदारों में से दो किरदारों ने मुझे व्यक्तिगत रूप से आकृष्ट किया है। पहला नेमीचंद माकड़ का और दूसरा अफ़ज़ल का किरदार। अफ़ज़ल के पास स्क्रीन टाइम और डायलॉग कम होने के बावजूद बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। 

थिंक पॉवर की ऑन स्क्रीन टीम 
                     
                              आप भी इस फिल्म को यू-ट्यूब के इस लिंक पर देख सकते है।
https://youtu.be/ToKOvQ_CdVgथिंक पॉवर शॉर्ट फिल्म

Tuesday 21 November 2017

जॉर्डन हो जाना उतना आसान भी नहीं होता



जॉर्डन,कहने को तो बॉलीवुड की मशहूर फिल्म 'रॉकस्टार' का एक काल्पनिक पात्र है  जिसे इम्तियाज़ अली ने निर्देशित किया था लेकिन यह एक ऐसा पात्र है जो काल्पनिक होने के बावजूद भी हूबहू सच जैसा ही लगता है क्योंकि थोड़ा-थोड़ा जॉर्डन हम सब में कहीं न कहीं दबा-कुचला उम्र के आखिरी कश तक भीतर ही भीतर कराहता रहता है।

कुछ किताबें और कुछ फ़िल्में ऐसी होती है कि उनका नशा दिल-औ-दिमाग से उतरता ही नहीं है बस बढ़ता ही जाता है। कुछ ऐसी ही फिल्म है 'रॉकस्टार' जिसमें जनार्दन जाखड़ उर्फ़ जॉर्डन का किरदार निभाया था, रणबीर कपूर ने। मेरा व्यक्तिगत रूप से ये मानना है कि रणबीर कपूर इस चरित्र के लिए ताउम्र जाने जायेंगे, चाहे वो एक हजार करोड़ की कमाई वाली फिल्म ही क्यों न कर ले। इस साल फिल्म को छः बरस हो गए है लेकिन लोकप्रियता और खुमार अब भी उतना ही है बल्कि मैं तो ये कहूंगा अब तो और ज्यादा बढ़ रहा है क्योंकि जॉर्डन सदियों-दशकों में एक-आध ही पैदा होते है।



इस तरह के किरदार एक ऐसी छवि बनाते है, जिसमें हमारे व्यक्तित्व के अंदरूनी हिस्से का बहुत कुछ मेल खाता है मगर हम सामाजिक ओरांग-उटांग के मकड़जाल में ऐसे जकड़े होते है कि ज़िन्दगी में कभी जॉर्डन बनने की हिमाकत ही नहीं कर पाते है।

वो कहते है न "फिर पछताये होत क्या? जब चिड़िया चुग गयी खेत" कुछ ऐसा ही नतीजा हमारे हिस्से के वक्त की दीवार पर लिखा मिलता है क्योंकि असल जिंदगी में हम जॉर्डन नहीं बल्कि कुछ और ही बने घूमते है जबकि बनना तो जॉर्डन ही चाहते है। फरेबी जिंदगी से मुक्त हो जाना ही असल में जॉर्डन हो जाना होता है और ये बनने के लिए आदमी जी-तोड़ प्रयास करता है लेकिन बन कुछ और जाता है।

इस फिल्म का ये किरदार भी बस जिंदगी की इसी सच्चाई को हमारे सामने रखता है कि हम जो है वो हम दिखते नहीं है और जो दिखते है असल में वो है नहीं। जॉर्डन, एक ऐसी छवि है जो ऊपरी तौर पर बन जाना या कहलाना तो आसान है पर असल में जॉर्डन होना उतना आसान भी नहीं क्योंकि जॉर्डन हो जाना अपने आप से और सब चीजों से एक अलहदा तरीके से मुक्त हो जाना होता है।

अब आप सोचते होंगे, होने को तो सब आसान है और सब चीजें मुश्किल है लेकिन मैं कहूंगा मुश्किल और आसानी से भी ऊपर कुछ होता है जिसे हमारी भाषा में असंभव होना कहा जाता है, बस उसी को हासिल करना ही हमें जॉर्डन बना सकता है। घर-परिवार, समाज, धर्म, रिश्ते, जिम्म्मेदारियां और ना ना विध बातें जो हमारे चारों तरफ घट रही है उन सब में ना होते हुए भी शरीक होना जॉर्डन होना होता है।

जो लोग इस पात्र को महज एक प्रेम कहानी का पात्र मानकर देखते है उनसे मैं यही कहूंगा कि जॉर्डन असल में प्राकृत है, वो किसी परिभाषा में बांधा जा सके यह संभव नहीं है। उसमें प्रेम पात्र बनने, विध्वंस का हौसला बनने, हक़ का नुमाइंदा बनने, बेलौस अल्हड़ता का पात्र बनने के सब गुण और अवगुण वर्तमान रहते है, इसलिए जॉर्डन बनना तो कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जॉर्डन हो जाना अपने आप में एक असंभव कारनामे को कर दिखाने जैसा है।

Friday 3 November 2017

सुनो सैलानी! इन पहाड़ों से कभी कोई झूठा वादा न करना।



पहाड़ों के अपने-अपने रहस्य होते है और वो ये रहस्य हर किसी से बतियाते नहीं है। बहुत से लोग होंगे जो पहाड़ों को पसंद करते है पर वो जिसे पसंद करते है वे उसे ही अपना रहस्य किसी समवेत स्वर में एक तान सुनाते है। 

लोग कहते है कि पहाड़ों के अपने राग-रंग होते है पर मैं मानता हूँ इन पहाड़ों को हम जो राग सुनाते है वही राग प्रतिध्वनि के रूप में हमें पुनः सुनाते है, इन्हें हम जिस रंग में रंगना चाहते है ये उसी में मस्ताने होकर हमें अपनी पीठ पर लादकर इतराते हुए इधर से उधर लिए फिरते है ताकि उन्हें कुछ समय के लिए ही सही एक अदद साथी मिल सके। ....मगर जब हमारा मन भर जाता है तो इनके चेहरे को एक लंबी सी साँस के साथ निहारते हुए न चाहते हुए भी विदा ले लेते है। याद रखना इस तरह विदा होना पहाड़ों को बहुत अखरता है, वे आँसू तो नहीं बहाते है पर भीतर ही भीतर रोते जरूर है। फिर वे अगले कुछ दिनों तक अपने आप को सहज बनाने में लग जाते है और अपने आप से एक वादा करते है कि अब वे फिर से किसी परदेशी से इतना हेत नहीं साधेंगे, इतनी प्रीत नहीं करेंगे।

......लेकिन नियति से मजबूर है बेचारे पहाड़! अगली दफा फिर किसी की प्रीत में हौले-हौले गुनगुनाने लगते है, चांदनी में नहाकर, छोटे-छोटे पौधों और घास-फूस से सज-धजकर, जो भी रंग सैलानी को आकर्षित कर सकता है वही रंग ओढ़कर वो फिर से मिलन की राग आलापने लग जाते है क्योंकि उन्हें पता है उनका जीवन ही पहाड़ सरीखा है इसलिए वो तन्हा नहीं रहना चाहते।

सुनो सैलानी !! तुम इस बार पहाड़ के पास जाओ तो उससे कोई लज़ीज़ वादा ना करना और ना ही उनको इस तरह बिना आँसुओं के रुलाना क्योंकि मैं जानता हूँ बिना आँसुओं के रोने का दर्द क्या होता है !
तुम उनसे प्रेम भरी बातें जरूर कर लेना लेकिन लौटते समय अपने साथ अपने देश में उनका दिल मत ले आना क्योंकि उनका दिल वहीं लगता है जहाँ के वे होते है पर उनकी एक मजबूरी है कि जैसे हम मनबहलाव के लिए उनके पास चले जाते है, कभी सशरीर तो कभी कल्पनाओं में वैसे वो हमारे साथ नहीं आ सकते । शायद इसीलिए तो वे हमें अपने पास बुलावा भेज देते है। क्या कहा...?? पहाड़ के दिल नहीं होता...?? होता है हुजूर.....कभी उसके कठोर सीने से लिपटकर महसूस करना उनका भी दिल होता है और हमारी ही तरह धड़कता है।  क्योंकि मैंने पहाड़ को किसी के वियोग में रोते हुए महसूस किया है।

Monday 21 August 2017

याद चुनरिया- गाँव वाले गीत


गांव वाली स्कूल में पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के कार्यक्रम में एक गीत हमेशा तय सा था'ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गांव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के' ....ये गीत मुझे पसंद भी था और नापसंद भी....क्योंकि सुनने में ये गीत उस समय मुझे बहुत अच्छा लगता था। कबूतरी रंग की शर्ट और खाकी रंग की पेंट पहने चार लड़के जब इस गीत को गाते थे तो रोम-रोम उत्साह से पुलक उठता था लेकिन जैसे ही बात इस गीत को समझने की आती थी या जब मैं पीपल के गट्टे के नीचे लग रही क्लास के दौरान जब इस गीत को मन ही मन गुनगुनाता तो इसके अर्थ के बारे में सोचने लग जाता था और पहली ही लाइन पर फुल स्टॉप लग जाता था । इसका कारण था मैं 'मशालें' शब्द को 'मसाले' पढता, सुनता और समझता था और पूरे गीत का गुड़-गोबर हो जाता था....कई सालों तक सोचता रहा की मसाले लेकर चले है गांव वाले तो सब्जी बना लेंगे लेकिन अँधेरा कैसे दूर होगा....?? 
खैर, समय के घोड़े पर सवार मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो इसका एक जुदा अर्थ मैंने अपने हिसाब से सेट कर लिया। ....और वो अर्थ था....जब मसाले लेकर सब्जी बना लेंगे, उसे खाने के बाद सब काम पर चले जायेंगे, कुछ कमा कर लाएंगे और लोग अँधेरा जीत लेंगे......कई साल यही अर्थ चला और मैं गीत गुनगुनाता रहा....। हाँ, मैं ये गीत अब भी कई बार गुनगुनाता हूँ लेकिन अब सही अर्थ पता है मगर वो विश्वास कहीं खो सा गया है जो बचपन में भ्रमित अर्थ के साथ हुआ करता था।


सधन्यवाद - के डी चारण

धूमिल की कविता "बीस साल बाद" पर दो शब्द....


हालांकि ये कविता आजादी के 20 साल बाद लिखी गयी थी लेकिन आज कॉलेज में स्टाफ के साथ आजाद भारत के विभिन्न विकास पक्षों पर चर्चा करते समय बार-बार मुझे याद आ रही थी। #धूमिल ने जो आजादी के 20 साल बाद देखा था, इसके 50 साल बाद स्थितियों में कितना और कैसा परिवर्तन आ पाया है...?? हालात गंदले है वो दिल में घिन्न भरते है और दिमाग में कीड़े सा काटता है। अनुभव कांटे से चुभते है और फरेबी आजादी का एक रिसता घाव छोड़ जाता है। कहीं लोग धर्म के नाम पर तो कहीं राजनीति के नाम पर तो कहीं वोट पाने के लालच में तो कहीं सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए आदमी की ही साँस छीन रहा है। व्यवस्थापक समय का हवाला देते है, रक्षक ताकत बढ़ने का, नीतियां बनाने वाले बस आदेश और अध्यादेश थोक के भाव जनता पर थोंप रहे है।......आम-आदमी है जो आहत और शापित सा सब कुछ भोग रहा है कभी किसी जुमले के हवाले तो कभी किसी भाषण के नाम पर.........



बीस साल बादमेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बनकर रह गई है.
बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं.
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है.
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं.
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.
मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म
आंकने का नहीं है
और न यह पूछने का-
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है?
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूं-
क्या आज़ादी
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उतर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप......

गुलज़ार की बज्म में......मैं गुलज़ार होता रहा !!

कुछ अरसा पहले  गुलज़ार साहब से मैं मिला था पर कुछ भी बोल नहीं पाया। एक लंबे व्यक्तव्य को और जिंदगी की कटी-फटी कहानी को बस दो मिनट में समेटने में माहिर नहीं हूँ मैं ।....और ना ही सवालों की आंच से बुद्धि को रोशन करने का पक्षधर होने का दावा कर रहा था उस वक्त....... काश ! मैं एक अच्छा वक्ता होता और जिंदगी को कुछ लफ्जों के मानी में लपेटकर उनसे कुछ साझा कर पाता....! कुछ पूछ पाता...कि कैसा है इसका स्वाद...?? कड़वा..? मीठा..? नमकीन...? या ये बेस्वाद ही है..??
क्या बोलना है? क्या पूछना है? पहली पूरी रात इसी में खपा दी।
....और एन वक्त मैं कुछ भी बोल नहीं पाया...बस शॉल में धड़कते एक दिल और होंठों के बहुत भीतर होले-होले मगर गंभीरता से आदमी होने की कोई सुगबुगाहट सुनी थी। अब जो घटना निःशब्द ही खामोशियों में घट गयी उसे शब्दाकार कैसे दूँ समझ में नहीं आता?
काश ! मैं एक लेखक होता और वो सब लिख पाता और बता पाता कि कैसा लगा था मुझे उनसे मिलकर.....!!

Thursday 27 April 2017

नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय विभूतियां


अब तक 5 भारतीय नागरिकों तथा 4 भारतीय मूल के नागरिकों को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है ...!

रबिन्द्रनाथ टैगोर (1913)
रबिन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 1913 में साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस समय वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले गैर यूरोपीय व्यक्ति थे. उनके द्वारा रचित ‘गीतांजली’, ‘राष्ट्रवाद’ तथा ‘गोरा’ आदि पुस्तकें आज भी लोगों के बीच अत्यधिक प्रसिद्ध हैं. वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दो देशों (भारत और बांग्लादेश) के लिए राष्ट्रगान लिखा.

सी वी रमन (1930)
भारत के महान वैज्ञानिक सी वी रमन को भौतिकी के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के कारण वर्ष 1930 में भौतिकी का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया. उन्होंने अपने शोध द्वारा यह सिद्ध किया था कि प्रकाश के पारदर्शी माध्यम से गुजरने पर उसकी तरंगों की लम्बाई में परिवर्तन आता है. इस शोध को आगे चलकर रमन इफ़ेक्ट के नाम से जाना गया.

मदर टेरेसा (1979)
विश्व भर में प्रेम और सेवा भाव का प्रसार करने वाली समाजसेवी मदर टेरेसा को पीड़ितों तथा निराश्रितों की सहायता करने हेतु वर्ष1979 में नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया.  मदर टेरेसा अल्बानिया मूल की थीं लेकिन उन्होंने कोलकाता में निर्धनों तथा पीड़ितों को अपना जीवन समर्पित किया. उनकी संस्था मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी आज भी इसी काम में जुटी है.

अमर्त्य सेन (1998)
भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को वर्ष1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कारदिया गया. उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘द आरग्यूमेंटेटिव इंडियन’ के लिए वे काफी चर्चित रहे लेकिन अर्थशास्त्र में उनका काम उल्लेखनीय रहा है.
उन्होंने विश्व को असमानता पर सिद्धांत से जागरुक करवाया तथा बताया कि भारत और चीन में महिलाओं के अपेक्षा पुरुषों की संख्या ज्यादा क्यों है. साथ ही उन्होंने इस पर भी प्रकाश डाला कि पश्चिमी देशों में मृत्यु दर में कमी के क्या कारण हैं.

कैलाश सत्यार्थी (2014)
बच्चों के अधिकारों के हक में तथा बाल मजदूरी के खिलाफ विश्वव्यापी आंदोलन चला रहे समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी को वर्ष 2014 नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ तथा 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' नामक संस्थाओं द्वारा अभियान चलाते हैं. इस संस्था द्वारा बच्चों को मजदूरी से छुडवाकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाता है.


भारतीय मूल के चार विजेता जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला –

हरगोबिन्द खुराना (1968)
भारतीय मूल के वैज्ञानिक हरगोबिन्द खुराना को वर्ष 1968 में मेडिसिन के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके द्वारा किये गये शोध में यह बताया गया कि एंटी बायोटिक्स लेने पर इसका शरीर पर किस प्रकार प्रभाव होता है. भारत में पंजाब में जन्मे खुराना ने अमेरिका के एमआईटी संस्थान से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वहीं की नागरिकता प्राप्त की.

सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर (1983) 
सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर को 1983 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. चंद्रशेखर ने पूर्णतः गणितीय गणनाओं और समीकरणों के आधार पर `चंद्रशेखर सीमा' का विवेचन किया तथा सभी खगोल वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी श्वेत वामन तारों का द्रव्यमान चंद्रशेखर द्वारा निर्धारित सीमा में ही सीमित रहता है.

वेंकट रामाकृष्णन (2009) 
मदुरै में जन्मे भारतीय मूल के वेंकट रामाकृष्णन को 2009 में राइबोसोम के स्ट्रक्चर और कार्यप्रणाली के क्षेत्र में शोध के लिएकेमिस्ट्री का नोबेल पुरस्कार दिया गया. वे कैम्ब्रिज विश्विद्यालय में अध्यापन करते हैं तथा वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करते हैं.

वी एस नायपॉल (2001)
विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल को 2001 में साहित्य के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘हाउस ऑफ़ मिस्टर बिस्वास’, इन अ फ्री स्टेट, अ बेंड इन द रिवर आदि शामिल हैं. त्रिनिदाद एंड टोबैगो में जन्मे नायपॉल के पूर्वज भारत में गोरखपुर के रहने वाले थे.

Wednesday 15 March 2017

वहां से लौटते हुए..!!!


ये जो हरा रंग है,
बस उसी की फिराक में लाल होकर डोलता हूँ।
धूप को कांधे पर टांग कर...
अपनी अंगरखी की फटी जेब में पूरी दुनिया की बेचारगी ठूसकर...
पगरखी से धरती की ऊपरी नकली परत को लगातार घिसते-घिसते...
एक दिन मेरा समूचा घिस जाना ये तुम्हारा भ्रम है।
असल में यही नियति कर्म है जो मुझे ज़िंदा रखता है।

मेरे थैले में बहुत लंबी यात्रा से पायी एक बहुत भयानक चीज़ है।
माने...
मेरे पास कुछ है जो आँखें बंद करके हर किसी को देने लायक नहीं है।
जिस दिन मुझे उसका असली पात्र मिला,
मैं उसे वो सब-कुछ देकर ठीक अगले क्षण ही...विदा ले लूंगा।

मैं हारकर विदा होता हूँ ये मत सोचना कभी....
हार में तो मैं हमेशा 'रहा' हूँ। चाहे आप मेरी हर 'हार' को उलट कर देख लें।

मेरे लिए विदाई सम्मोहक है,
वो रुलाती है मगर अगली बार हंसने का भाना भी देती है।
विदाई इसलिए भी क्योंकि,
नेपथ्य में बस कोलाहल है, कोई मुकम्मल आवाज़ नहीं है मेरे लिए....!!!

#वहां_से_लौटते_हुए।
6 मार्च,2017
जोधपुर।

Monday 27 February 2017

वो मोरचंग की धुनों सरीखी मीठी-तीखी धुनें सुनाता रहा और मैं लहराता रहा।

कल शाम बेहद खास बन गयी थी बहुत लंबी अवधि के बाद तुम्हें बड़ी आत्मीयता से सुना था और उसी की बदौलत रात देर तलक मैं अपने आप से बतियाता रहा कि कोई दिन तो होगा जब #फटी_जेब_से_एक_दिन कुछ कामयाब लम्हे निकाल कर अपनी भीतरी तपन को ठंडक दूंगा लेकिन कब....??? और मैं व्याकुल हो जाता हूँ......फिर चित्त में तुम धीरे-धीरे उतरने लगते हो और जून महीने की निदाघ तपती दुपहरी में भी अपने आप को कैसे आर्द्र किया जा सकता है ये सब बतलाते हो।

मैं तुम्हारी हर बात सच मानता हूँ मेरे प्रिय लेखक क्योंकि जानता हूँ कि ये सब तुम्हारा अपना भोगा हुआ यथार्थ है। अक्सर लोग फटी जेब से निकले उन कामयाब लम्हों को अपने हाथ चिकने कर, अपने शौक-मौज में लगा देते है या बर्बाद कर देते है पर मैं जानता हूँ कि तुमने मेरे प्रिय लेखक कभी ऐसा नहीं किया शायद इसी वजह से मैं तुमसे इतना ज्यादा प्रभावित हुआ हूँ। करते भी कैसे....?? ये लम्हे तुमने कोई अनायास और बिना प्रयास के ही प्राप्त नहीं कर लिए......तुम खूब लड़े, तपे और गलाया अपने आप को......तब कहीं जाकर तुमने कुछ प्राप्त किया होगा। तुम इनका इस्तेमाल चाहे जैसे कर सकते थे पर तुम्हें यही उचित लगा कि बस फकीरी में ही आनंद है खैर आनंद प्राप्त करने के अपने अपने मानदंड होते है कोई फकीरी से करता है तो कोई विलासिता से करता होगा।
एक बात कहूँ मेरे खास लेखक, कभी कभी कुछ लोग तुम पर हंसते है, नानाविध फब्तियां कसते है, जानता हूँ तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता उनका पर मुझे वे लोग विचलित कर देते है।  तुम्हारे एकांत गीतों को वे एक अलग नजरिये से क्यों देखते है पता नहीं....?? क्या उन्हें वो पीड़ा नजर नहीं आती जो मुझे महसूस होती है...??? क्या वे तुम्हारी आँखों और चेहरे पर वो सब भाव तैरते हुए नहीं देख पाते जो मैं देख लेता हूँ..???
मैं उन लोगों से कहूंगा #इस_आदमी_को_सुनों जो कहता है कि प्रेम एक कभी न अंत होने वाली प्रार्थना है। जो कहता है हारी हुई परिस्थितियों में भी जिंदगी को #अंगूठा बताकर फिर से खड़ा हुआ जा सकता है।  ......बाकी समय भले ही ये शख्श चुप रहे लेकिन ये वहां अनायास वाचाल हो उठता है #जहाँ_आदमी_चुप_है। 
इस व्यक्तित्व को बड़े गहरे से सुनों तुम्हें कुछ खास सुनाई देगा जो सहजता से बहुत कम सुनने को मिलता है। एक बात और कहूँ, इस कवि को कभी कान से मत सुनना सब साफ़-साफ़ नहीं सुनाई देता है इसे आँखे बंद करके एक मिनट में बहत्तर बार धड़कने वाले अपने भीतरी लाल वाले कान से सुनना, तुम्हें बहुत कुछ सुनाई देगा।
जैसे -

"तुम जिस आषाढ़ को
छोड़ गई थी
वही लिए बैठा हूँ,
आओ तो
वह बरसे !!"

फोटो साभार - सवाई सिंह जी शेखावत और ईश मधु जी के एल्बम से।

Wednesday 8 February 2017

दो आखर "चारणां री बातां" – ठा. नाहरसिंह जसोल

ठा. नाहरसिंह जसोल द्वारा लिखित पुस्तक “चारणों री बातां” की भूमिका

“दो आखर”

चारणों सारूं आदरमांन, श्रद्धा, अटूट विश्वास रजपूत रै खून में है। जुगां जुगां सूं चारणों अर रजपूतां रै गाढ़ा काळलाई सनातन संबन्ध रया है। आंपणों इतिहास, आंपणी परम्परावां, रीत-रिवाज, डिंगल साहित्य अर जूनी ऊजळी मरजादां, इण बात रा साक्षी है।

केतांन बरसां तक ओ सनातनी सम्बन्ध कायम रयौ। न्यारौईज ठरकौ हौ। पण धीरे धीरे समय पालटो खायौ अर उण सनातनी संबन्धों में कमी आण लागी। ऐक दूजा रै अठै आण-जाण कम व्हे गयो, अपणास में कमी अर खटास आय गई, ओळखांण निपट मिट गई। इण सब बातां सूं जीव कळपण लागौ अर सन् 1982 में ‘क्षत्रिय दर्शन’ नांमक मासिक पत्रिका में म्है टूटतै काळजे अेक लेख लिख्यौ, वो इण भांत है- ‘राजपूत अर चारणों रा संबन्ध’

राखण ने रजवट धरा, और न दूजी ओळ।
देवगुणां कुल् चारणां, पूजां थांरी प्रोळ।।

राजपूतों सारूं चारण जुगों-जुगों सूं पूजनीक रियो है। चारण शब्द मूंडा मांय सूं निकळतां पांण राजपूत रो माथौ श्रद्धा अर भक्ति सूं झुक जावै। राजपूत सारूं चारण आदि काळ सूं साचौ हितेषी अर साचे मारग माथै टोळणीयौ रह्यो है। चारण नें सही सूं राजपूतां रो गुरू भी कैवां तो कोई म्होटी बात नी व्हैलाः

रजवट रै चारण गुरू, चारण मरण सिखाय।
बलिहारी गुरू चारणां, खिण तप सुरग मिलाय।।

चारण, राजपूत नें अधर्म अर अनीति सूं बचावण वाळी चालती फिरती गीता, अर अंधकार सूं ऊजाळा रूपी सतमारग माथै लेजावण वाळी अखंड जोत रही है। हजारों, लाखों गीत, दोहा, छप्पय, सवैया, चारण कवीसरों रचिया वे आंपणे साहित्य रो अनमोल खजानो है।

कायर सूं कायर रजपूत नें आपरी जोशीली वांणी सूं बिड़दाय, रणखेतर में भेजण री शक्ति चारणों में हीज ही, अर मरियां पछै उणरी कीरत रा गीत रच उणने अजर अमर करण री पण खमता चारणों में हीज हीः

कायर नें लानत दीयै, सूरां नूं साबास।
रण अरियां नें त्रास दै, चारण गुण री रास।।

चारण वाणी रे ओजस रो ऐड़ो उदाहरण संसार रे इतिहास अर साहित्य में कठैई नजर नी आवै।

जस आखर लिखै न जठै, वा धरती मर जाय।
संत, सती अर सूरमा, ऐ ओझळ हो जाय।।

अर ऐ जसा रा अनमोल अर मीठा आखर लिखण वाळा और कोई नी पण चारण कवीसर ही जुगों सूं आपरो चारण धर्म निभाता आया है।

जे चारण जात नी व्हेती तो, नी तो राजपूतों रो ऊजळो इतिहास वेतो, नी वीर गाथावां वेती, नी काव्य वेतो, नी डिंगल साहित्य ही वेतो। वांणी अर कलम रा धणी इण कवीसरों वांरी ओजस्वी रचनावां, कोरी वीररस में ही नी रची। भक्ति, श्रंगार, करूण, व्यंग, हास्य, रस में अनेक रचनावां सृजित कर इतिहास अर साहित्य रो अनमोल खजानों आवण वाळी पीढि़यों सारूं छोड़, अमर व्हे गया।

जोधपुर रा महाराजा मांनसिंहजी चारणों रा अटूट पुजारी हा। घणा फूटरा आखरां में वां चारणां सारूं आपरी श्रद्धा इण मुजब दरसाईः

चारण तारण क्षत्रियां, भगतां तारण रांम।
इक अमरापुर ले चले, इक नव खंड राखै नांम।।

आगे फेर देखाओः

अकल, विद्या, चित ऊजळा, इधको घर आचार।
वधता रजपूतां विचै, चारण वातां च्यार।।

राजपूत अर चारणों रा रीत-रिवाज, खांण-पांण, पैहरवास सब एक है। फरक इतोइज है कि एक चारण है अर दूजो राजपूत। एक शरीर रा दो अंग। चारण साची कैवण में कदेई संकोच नहीं करियो नी वांरे दिल में कदेई डर रियौ। कठेई कोई राजपूत ऊंदौ कांम करियौ तो वांने फटकारण में जेज नी कीवी अर फटकारियां ई एैड़ा कड़वा आखरां में कै सीधी काळजा माथै चोट लागै।

जोधपुर रे महाराजा बखतसिंह जी जद वांरे बाप अजीतसिंहजी री हत्या करी तो चारण कवि कीकर चुप बैठा रैहताः

बखता बखत्त बाहिरा, क्युं मार्यो अजमाल।
हिन्दुवांणी रो सेवरो, तुरकोंणी रो साल।।

अर अजीतसिंहजी जद वांरी बेटी इन्दरकंवर रो डोलो बादशाह फर्रुकशियर रै भेजीयौ तौ भभूत दांन जी रौ काळजौ फाट गयौः

काळच री कुल में कमंध, राची किम या रीत।
दिल्ली डोलो भेज नैं, अभकी करी अजीत।।

इण भांत री टूटतै काळजै सूं निकलीयोड़ी फटकारों सूं मध्यकालीन साहित्य भरियौ पडि़यौ है।

जद मौकौ आयौ, इण चारण कवीसरों राजपूतों ने शरणौं देय उणां री रक्षा पण करी। राव वीरम री विधवा रांणी मांगलीयांणी जी उणां रे बेटे चूंडा ने लेय आल्हाजी चारण रे घरे शरणौ लियौ। आल्होजी नें जद चूंडा री सही जांणकारी मिळी तो उण ने महेवै जाय रावल मलीनाथजी नें सूंपियौ।

जिण जात में महान सगतां प्रगट होवे वा तो पूजनीक है हीज, अर ऐ सगतां चारण जात में हीज प्रगट हुईः

किण कुळ सूरां, किण सती, इण दो गुणां जगत्त।
तिगुण गुणां कुल चारणां, सूरां, सती, सगत्त।।

चारण कुळ में प्रगटी इण देवियां, राजपूतों ने खळखळे मन सूं आशीष देय मोटा-मोटा भूभाग रा राजा बणाया, पर, वां खुद रे जात अर कुळ मांय सूं किणनेई आशीष देय मोटा राज रो धणी नी बणायौ।

देवी आवड़जी सिंध रै सूमरों रो नाश करनै सम्माणा रे राजपूतों ने सिंध रो राज दियौ।

सन् 1302 ई. में अल्लाउद्दीन खिलजी सूं हार, हमीर मेवाड़ छोड़ गुजरात कांनी गयौ। ओठै महामाया वरवड़ीजी हमीर ने हिम्मत बंधाई, आसीरवाद दियौ अर उणने पाछौ मेवाड़ ऊपर हमलो करण री आज्ञा दी। वरवड़ीजी री कृपा सूं मेवाड़ ऊपर पाछौ सिसोदियां रो राज थिरपीजियौ।

देवी करणीजी रै प्रताप सूं जोधा नें मारवाड़ अर बीका नें बीकानेर रो राज मिल्यौ। इणीज कारण न्यारी-न्यारी राजपूत शाखाओं में कुळदेवियों रे रूप में आज ई ऐ देवियां पूजीजैः

आवड़ तूठी भाटियों, कामेही गौड़ोंह।
श्री बरबड़ सीसोदियों, करणी राठौड़ोंह।।

जद अन्याय अर स्वार्थ रे नशा में आय, दो राजपूत घरांणा एक दूजा नें खतम करण री तेवड़ी तो उण अबखी वेळा में केतांन चारणों फौज रे विचै जाय वांनै मनावण री कोशीश करी, अर जद कोई नी मांनीया तो खुद रे पेट में कटारी खाय मर गया। चारण रो खून पड़तां ही दोनू कांनी खींचीजियोड़ी तलवारों म्यानां में पाछी जावती, अर भाई-भाई रे खून रा तिरसा, नीची गाबड़ कियां पछतावा रो पोटक माथै बांध, पाछा घरे जावता। राजपूत जात सारूं इत्तो मांन, सम्मांन, अपणायत, अर प्रेम रो रिश्तो, चारणों सिवाय कुण निभावै।

महाराजा मांनसिह जी जालोर रै किला में घेरीज गया। राशन पांणी निठ गया। सिपाहीयौं रै भूखां मरण री नौबत आय गई। जद मांनसिंह जी वांरै विश्वास पात्र कवि जुगतीदांनजी वणसूर नें वौकारिया।

जुगतीदांन जी कनै पईसा कठै।

पण जिण विस्वास सूं महाराजा वांने छांटी भळाई तो उणरी तो तामील करणीज ही।

जुगतीदांनजी भेस पलट, खुद रै जीव नै जोखम में न्हांख, किले बारै निकळ गया। घरे जाय, गैणां गांठो हो, उणने बेच मांनसिंहजी री मदद कीवी।

थोड़ा दिनों पछै फेर नांणा री जरूरत पड़ी। घेरो ऊठण रा आसार दिखै नहीं। पाछा जुगतीदांन जी याद आया। जुगतीदांन जी पण पूरा सांमधरमी।

ना कीकर देवै।

भेस पलट पाछा किला बारै निकळ घरे गया। गैणां गांठो तो पेली बेच दियो। हमैं कांई बेचे। वां तो डावो देख्यौ न जीमणौ, खुद रे बेटे भैरजी नें एक महंत (भाडखै रा या खारै रा) रे ओठे अडांणे मेल रूपियो लेय मांनसिंह जी नें नजर किया।

थोड़ा दिनां सूं देवजोग सूं जोधपुर महाराजा भीमसिंह जी रो सुरगवास व्हे गयो। मांनसिंह जी ने मारवाड़ री गादी पर बैठाया।
जुगतीदांनजी रै उपकार नें राजाजी कीकर भूलता। किले माथै बुलाय, लाख पसाव देय पारलू री जागीर दीवी, अर वांने हाथी ऊपर बैठाय खुद हाथी रै आगे किला री सिरे पोळ तेक पैदल चाल वांने, नवाजिया।

राजपूत रे घर में चारण, कविराजा, बारठजी, बाबोसा, बाजीसा रे नांमां सूं जांणीजे। ऐड़ो कोई मौको नी जद राजपूत रे घरे बाजीसा नी लादै। वांरे बिना कोई मौको नी सज सकै। वांरै बिना घर रा सगळा खुशी रा मौका फीका। जद कदेई सलाह-सूद री जरूरत पड़े बुलावौ बाजीसा नें। सगाई सगणपण करणौ व्है, पूछो बाजीसा नें। दो लडि़योड़ा भायौं बिच्चे राजीपो कराणों व्है, बुलावौ बाजीसा ने। अर मरणे परणे बाजीसा रो होणो जरूरी। ब्याव, शादी, सगाई, सगपण में जठा तक बाजीसा नी पधारे, सारी सभा सूनी। ज्युं ई बाजीसा आया, सभा में रंग आय जावे। सारा ही सभासद ऊठ ने बाजीसा नें आदर देवे। ठाकर सांमां जाय पगां रे हाथ लगाय घणे मांन सूं बधाय बाजीसा ने ऊंचे आसण बैठावै। अमल री डोढ़ी मनवारों होवे और खारभजणा लियां पछे घणे जोर सूं खैंखारो कर ने सैंगही सभासदों रो ऊतरियोड़ौ अमल उगावै अर पछै बातों रा अर दूहों रा दपट्टा उडै, जिणने सुणतां कोई थाकैई नी। चिलमां और हुक्कों में पण नवी जिन्दगी आय जावै। वेई एक हाथ सूं दूजे हाथ सभा चालै जितै चालबो करे।

राजपूत घरों री सउवाळीयां आपरै बडेरां सूं, मरजाद मुजब लाज सरम करै, पड़दो राखै, पण बाजीसा सूं, कोई पड़दो नी। वे निसंकोच आंगणें आय जाय सकै। कोई समाचार बारे मिनखां में कैवाणा व्है तो बाजी सा कैहवै। बाजी सा आवे जद जांणे वांरे बाप घरे आवै जितौ कोड करे। वांने आंगणे बुलावै। ऊंचे आसन उपर बैठाय, कंकू चावळ रा तिलक करै, अर घणै कोड सूं आपरा हाथ सूं वांनें जीमावै। और जे जीमण में कमी रैय जावे तो बाजीसा रे नाराज हो जावण रौ पण डर हर घड़ी रैहवै।
टाबर तौ बाजी सा रौ एक घड़ी लारौ नी छोड़ै। बाजीसा ‘बात मांडो नी’ री जिद सूं वांने छोड़ैईज नी। जठा तक एक दो चुटकला नी सुणाय देवै, टाबर लारो नी छोड़ै। अर बाजीसा जद घणाईज काया व्हे जावै तो जेब सूं मखांणा, नवात, खाटी, मीठी, बटियां देय आपरो पिंड छुड़ावै। छोटे सूं मोटा तक बाजीसा बाजीसा करता थाकै नीं। अर बाजीसा पण वांसूं बातां और कवितावां में इत्ता रीझ जावै के खावण पीवण री सुध नी रैहवै। बाजी सा रै सभा में रैहतां, दिन कद ऊगे कद आथमें, कांई पतो नी पड़ै। ऐड़ो गहरौ सनातन राजपूतों सारूं बाजीसा सूं बढने किण रे साथे व्है सकै।

समय बीत गयौ। बातां रैय गई। मन एक ठंडो ऊंडो निसासो छोड़ नें रैय जावै। इण ठालै भूलै बदलते समय, यां दोनूं जातां रे बीच पीढि़यां रे बणियोड़े कालजा रे सनातन अर प्रेम नें झकझोर दीनो। सुरगवासी नाथुदांनजी महियारिया रो काळजो टूक-टूक व्हे गयौ जद वां इण दोनूं जातां रै आपसी सनातन में कमी आती दीठी अर आपरै हीया री ऊमस नीचे, लिखी ओळियां में निकाळीः

वे रण में बिड़दावता, वे झड़ता खग हूंत।
वे चारण किण दिस गया, किण दिस गा रजपूत।।

एक फेर कवीसर इण ही सारुं कैयो हैः

कुण तौ कैवै, कुण सुणें, दोनूं पूत कपूत।
म्हां जिसड़ा चारण रया, थां जिसड़ा रजपूत।।

जिण रजपूत रै घरे चारण रौ आण जाण होवे वो घर मंदिर ज्यूं पवित्र होवे। यां देवी पुत्रों रे संपर्क सूं सद्बुद्धि रौ संचार होवे। वांरी आशीष सूं रजपूत रो सदा ही भलो होवे, ऐड़ी म्हारी मांनता है।

ऊपर लिखिया कारणों रै कारण, मन में आई कै क्यूं नी म्हारी च्यार पांच पोथियां में छपी चारणों री न्यारी-न्यारी बातों ने भेळी कर, अेक न्यारी पोथी छपाऊं ताके चारणों री सगळी बातां अेके ठौड़ आय जावै। अर छेहली ऊमर में, जातां-जातां, इण अमोलक जात ने, इण पोथी रै पांण, छेहला जुहारड़ा कर, म्हां माथै चढि़योड़ा करज नैं थोड़ोक कम कर सकूं।

इण पोथी में आयोड़ी जूनी बातां में वां जूना मिनखां रा ऊजळा आदर्श है, त्याग है, तपस्या है, मिनखी पणा री केतांन मिसालों है। आशा है पाठकवृंद यां आदर्शों ने आपरै जीवण में ढ़ाळ, वांरो जीवन सार्थक बणावण रो जतन करसी।

दीवाळी 2011                                                               आपरोहीज
करणी कुटीर                                                           ठा.नाहरसिंह जसोल
मु.पो. जसोल