Monday 21 August 2017

याद चुनरिया- गाँव वाले गीत


गांव वाली स्कूल में पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के कार्यक्रम में एक गीत हमेशा तय सा था'ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गांव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के' ....ये गीत मुझे पसंद भी था और नापसंद भी....क्योंकि सुनने में ये गीत उस समय मुझे बहुत अच्छा लगता था। कबूतरी रंग की शर्ट और खाकी रंग की पेंट पहने चार लड़के जब इस गीत को गाते थे तो रोम-रोम उत्साह से पुलक उठता था लेकिन जैसे ही बात इस गीत को समझने की आती थी या जब मैं पीपल के गट्टे के नीचे लग रही क्लास के दौरान जब इस गीत को मन ही मन गुनगुनाता तो इसके अर्थ के बारे में सोचने लग जाता था और पहली ही लाइन पर फुल स्टॉप लग जाता था । इसका कारण था मैं 'मशालें' शब्द को 'मसाले' पढता, सुनता और समझता था और पूरे गीत का गुड़-गोबर हो जाता था....कई सालों तक सोचता रहा की मसाले लेकर चले है गांव वाले तो सब्जी बना लेंगे लेकिन अँधेरा कैसे दूर होगा....?? 
खैर, समय के घोड़े पर सवार मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो इसका एक जुदा अर्थ मैंने अपने हिसाब से सेट कर लिया। ....और वो अर्थ था....जब मसाले लेकर सब्जी बना लेंगे, उसे खाने के बाद सब काम पर चले जायेंगे, कुछ कमा कर लाएंगे और लोग अँधेरा जीत लेंगे......कई साल यही अर्थ चला और मैं गीत गुनगुनाता रहा....। हाँ, मैं ये गीत अब भी कई बार गुनगुनाता हूँ लेकिन अब सही अर्थ पता है मगर वो विश्वास कहीं खो सा गया है जो बचपन में भ्रमित अर्थ के साथ हुआ करता था।


सधन्यवाद - के डी चारण

धूमिल की कविता "बीस साल बाद" पर दो शब्द....


हालांकि ये कविता आजादी के 20 साल बाद लिखी गयी थी लेकिन आज कॉलेज में स्टाफ के साथ आजाद भारत के विभिन्न विकास पक्षों पर चर्चा करते समय बार-बार मुझे याद आ रही थी। #धूमिल ने जो आजादी के 20 साल बाद देखा था, इसके 50 साल बाद स्थितियों में कितना और कैसा परिवर्तन आ पाया है...?? हालात गंदले है वो दिल में घिन्न भरते है और दिमाग में कीड़े सा काटता है। अनुभव कांटे से चुभते है और फरेबी आजादी का एक रिसता घाव छोड़ जाता है। कहीं लोग धर्म के नाम पर तो कहीं राजनीति के नाम पर तो कहीं वोट पाने के लालच में तो कहीं सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए आदमी की ही साँस छीन रहा है। व्यवस्थापक समय का हवाला देते है, रक्षक ताकत बढ़ने का, नीतियां बनाने वाले बस आदेश और अध्यादेश थोक के भाव जनता पर थोंप रहे है।......आम-आदमी है जो आहत और शापित सा सब कुछ भोग रहा है कभी किसी जुमले के हवाले तो कभी किसी भाषण के नाम पर.........



बीस साल बादमेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बनकर रह गई है.
बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं.
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है.
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं.
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.
मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म
आंकने का नहीं है
और न यह पूछने का-
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है?
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूं-
क्या आज़ादी
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उतर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप......

गुलज़ार की बज्म में......मैं गुलज़ार होता रहा !!

कुछ अरसा पहले  गुलज़ार साहब से मैं मिला था पर कुछ भी बोल नहीं पाया। एक लंबे व्यक्तव्य को और जिंदगी की कटी-फटी कहानी को बस दो मिनट में समेटने में माहिर नहीं हूँ मैं ।....और ना ही सवालों की आंच से बुद्धि को रोशन करने का पक्षधर होने का दावा कर रहा था उस वक्त....... काश ! मैं एक अच्छा वक्ता होता और जिंदगी को कुछ लफ्जों के मानी में लपेटकर उनसे कुछ साझा कर पाता....! कुछ पूछ पाता...कि कैसा है इसका स्वाद...?? कड़वा..? मीठा..? नमकीन...? या ये बेस्वाद ही है..??
क्या बोलना है? क्या पूछना है? पहली पूरी रात इसी में खपा दी।
....और एन वक्त मैं कुछ भी बोल नहीं पाया...बस शॉल में धड़कते एक दिल और होंठों के बहुत भीतर होले-होले मगर गंभीरता से आदमी होने की कोई सुगबुगाहट सुनी थी। अब जो घटना निःशब्द ही खामोशियों में घट गयी उसे शब्दाकार कैसे दूँ समझ में नहीं आता?
काश ! मैं एक लेखक होता और वो सब लिख पाता और बता पाता कि कैसा लगा था मुझे उनसे मिलकर.....!!