Monday, 21 August 2017

धूमिल की कविता "बीस साल बाद" पर दो शब्द....


हालांकि ये कविता आजादी के 20 साल बाद लिखी गयी थी लेकिन आज कॉलेज में स्टाफ के साथ आजाद भारत के विभिन्न विकास पक्षों पर चर्चा करते समय बार-बार मुझे याद आ रही थी। #धूमिल ने जो आजादी के 20 साल बाद देखा था, इसके 50 साल बाद स्थितियों में कितना और कैसा परिवर्तन आ पाया है...?? हालात गंदले है वो दिल में घिन्न भरते है और दिमाग में कीड़े सा काटता है। अनुभव कांटे से चुभते है और फरेबी आजादी का एक रिसता घाव छोड़ जाता है। कहीं लोग धर्म के नाम पर तो कहीं राजनीति के नाम पर तो कहीं वोट पाने के लालच में तो कहीं सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए आदमी की ही साँस छीन रहा है। व्यवस्थापक समय का हवाला देते है, रक्षक ताकत बढ़ने का, नीतियां बनाने वाले बस आदेश और अध्यादेश थोक के भाव जनता पर थोंप रहे है।......आम-आदमी है जो आहत और शापित सा सब कुछ भोग रहा है कभी किसी जुमले के हवाले तो कभी किसी भाषण के नाम पर.........



बीस साल बादमेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बनकर रह गई है.
बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं.
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है.
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं.
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.
मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म
आंकने का नहीं है
और न यह पूछने का-
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है?
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूं-
क्या आज़ादी
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उतर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप......

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