Sunday 8 May 2016

रजनीगंधा का विपर्याय

रजनीगन्धा हूँ मैं,
रंगोआब खुशबू से शेष
जी, हां रजनीगंधा ही हूँ मैं,
वह रंगोआब, खुशबू वाला पुष्प नहीं,
जो जीवन में भाव भरता है,
नयापन लाता है।
समय रंगकर होठों की लाली बढाने वाली,
पीक के लाल छर्रों वाली,
मुलायम-कठोर कणों के गुण धर्म वाली
रजनीगन्धा ही हूँ मैं।

एक पतली परतदार चिकनी, चमकीली,
लजीज पोटली,
जिसे रसिक फाड़कर,
कुछ देर बाद,
स्वादहीन करके पीक के छर्रों से,
उगल देता है पीकदान में,
या इधर-उधर,
उछालता है हर कण,
स्वादसुधा से विभोर होकर,
कुछ तो निगल ही जाते है कमबख्त
जी, हां रजनीगंधा ही हूँ मैं।

अनवरत मेरी शार्गिदी,
अच्छी बात नहीं,
फिर मैं अपनी रक्तिमता जमाकर,
अशेष कर देती हूँ अपने ही रसिक को,
हाँ, रजनीगंधा हूँ मैं।

पीक के लाल छर्रों वाली।
जिससे वक्त का जर्रा रंगकर,
एक स्वादातुर रसिक कणों के साथ खेलता हूं,
समय को ढेलता है,
कुछ देर बाद मुझे ही धकेलता है,
आखिरकार मैं ही उसके राग का कारण बनती हूं।
रजनीगंधा हूँ मैं, जिसे कुछ लोग स्त्री कह देते है।

पीक के लाल छर्रों वाली
पतली, परतदार, चिकनी, चमकीली
लजीज पोटली।
रंगोआब, खुशबू से शेष,
जी हाँ, रजनीगंधा ही हूं मैं।  

[फोटो - साभार गूगल]