Tuesday 30 August 2016

अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान - "वही लड़की बार-बार..."

अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान - "वही लड़की बार-बार..."
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निःसंदेह प्रेम क्षणिक नहीं होता वो रगों में दौड़ते खून के हर कतरे में समा जाता है जब किसी से हो जाता है, उम्र के हर पड़ाव पर बल्कि ये कहना चाहिए कि ताउम्र वो अपना एहसास दिलाता रहता है और जब प्रेम अनकहा रह जाए या उसका इजहार न किया जाए तो वो कितना बेजोड़ और एहसासमय हो जाता है कुछ ऐसा ही एहसास कराती है कमलेश तिवारी की कहानी "वही लड़की बार-बार"। मित्रों कमलेश जी एक शिक्षक है और रंगमंच की दुनिया में भी अपनी अच्छी पहचान रखते है। सूर्यनगरी के उम्दा रंगकर्मियों में इनका नाम आता है। इतना ही नहीं वॉलीवुड की भी फिल्मों में इन्होंने अभिनय किया है।  रंगमंच से गहरा सम्बन्ध है तो इनकी कहानियों में वातावरण के साथ साथ पात्रों में भी ज्यादा जीवन्तता देखने को मिलती है। एक दृश्य देखिये - "सूरज इतना नीचे सरक आया कि धूप रौशनदान से तैरती हुई नीचे वाली खिड़की की जाली को चीरती हुई रामावतारजी की आँखों में गड़ने लगी। वे तुरंत अख़बार को आँखों के आगे फैला लेते हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य अख़बार पढ़ना है या धूप से बचना है, ये कहना ज़रा कठिन है। "
"वही लड़की बार बार" कहानी सुबह के सुरम्य वातावरण में शुरू होती है और एक साँझ पर आकर खत्म नहीं होती है बल्कि एक विराम लेती है असल में वो सुबह और शाम केंद्रीय पात्र रामावतार की उम्र ही है जिसका कलेवर लेखक बखूबी बुनता है। कहानी का कथ्य ही कुछ ऐसा है कि इसके पात्र जरुर बदल जाते है लेकिन ये कहानी कभी बदलती नहीं है। जो लोग अपने प्यार का इजहार कर देते है वो उस एहसास से चूक जाते है जो दिल की शिराओं से लेकर आकाश तक को कभी लाल सुर्ख होने का एहसास दिलाता है। ये एहसास ही तो व्यक्ति को बेरोक अनवरत यात्राएँ करवाता है। जहाँ वो कभी उन गलियों की, कभी उन बेतरतीब शामों की, कभी उन सूने मोड़ों की जहाँ जिंदगी सहमी हुई सी किसी खरगोश की भांति आंखें मूंदे हुए बैठी मिलती है और अनायास ही एक सरसरी शरीर के एक छोर से दूसरे छोर तक फैलती है और याद आता है वो प्यार जिसके सहारे उम्र पेंडुलम में रेत की तरह कण दर कद रिसती है। ऐसे कम लोग ही होते है जो रामावतार की तरह ये एहसास तमाम उम्र अपने साथ लेकर चलते है और वो लड़की बार बार आकर जिंदगी में कमाए हुए बेशकीमती हसीन पल खर्चने का मौका देती है।
इस कहानी की एक विशेष बात जिसने सबसे ज्यादा मेरा ध्यान आकृष्ट किया और आप भी अछूते नहीं रहेंगे वो यह कि कहानी का मुख्य पात्र कहानी के शुरू में भी अपना मुंह टेढ़ा कर लेता है या बिगाड़ लेता है व कहानी के आखिर में भी कुछ ऐसा ही करता है लेखक ने उम्र के इस पड़ाव को जिसमें अभी रामावतार है इंगित करते हुए बखूबी दिखाया है कि इस उम्र में हज़ार कोशिशों के बाद भी कोई व्यक्ति खुलकर विरोध नहीं कर सकता है या घट रही चीजों को नकार नहीं सकता है बल्कि वो सब कोन्सियस माइंड में चल रही बातों से तुलना कर हकीकत वाली बात को छोटा साबित करने के लिए मुंह बिगाड़ लेता है बस यही चारा रह जाता है। क्योंकि रामावतार के लिए दुनिया की कोई सुरीली आरती या स्वर लहरी है तो वो है सरू या सरस्वती की आवाज़ में, कपड़ों को तह करना, आरती गाना, सूजी का हलवा सब कुछ उनको सरू से जोड़ता है लेकिन सरू से अच्छा उनकी नज़र में कोई नहीं कर सकता। यही वो विराट और स्वर्णिम प्रेम है जिसके लिए हर कोई लालायित रहता है।
कहानी दो अलग अलग भौगौलिक परिवेशों को समेटे हुए है लेकिन उतराखंड वाला इश्कियाना माहौल पाठक में सहजता से उतरता है क्योंकि वहां कथानक ज्यादा प्रेममय हो जाता है। शिल्प के आधार पर बात करें तो उनका काम काफी सराहनीय है। कहानी फ्लेश-बैक शैली का सहारा लेती है जो कथ्य के हिसाब से उपयुक्त भी है।  संवाद और बिम्ब बेहद उम्दा है जो इस कहानी को विस्तार भी देते है तो दूसरी तरफ मन की परतों पर अपना मुलम्मा भी छोड़ जाते है।
कुल मिलाकर अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान है "वही लड़की बार बार..." कमलेश जी को बहुत बहुत शुभकामनायें। उनका लेखन नित नयी ऊँचाइयों को छुए और वो ऐसी ही शानदार कहानियां पाठकों को देते रहे।
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के डी चारण
जोधपुर
29/11/2015
09782836083
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आप ये कहानी इस पते पर जाकर भी पढ़ सकते है।
http://kamaleshtewari.blogspot.in/2015/04/blog-post.html?m=1
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Wednesday 24 August 2016

अशोक गहलोत की कविता "ख्वाबों की मौत"

अशोक गहलोत साहित्य के उन विद्यार्थियों में से है जो महज परीक्षा पास करने के लिए नहीं पढ़ते है वो साहित्य में रूचि रखने वालों में से एक है। यही नहीं वो अपनी एक राय हर तरह की कविता और कहानी पर रखते है। इतिहास और व्यवहार शास्त्र में भी गहरी रूचि होने के कारण उनकी कविताओं में सिर्फ बड़बोलापन नहीं है बल्कि वो तटस्थ रहकर अपनी कविता में विचार का एक बीज भी रखते है। यहाँ मैं उनकी एक कविता रख रहा हूँ। आप भी पढ़कर  राय दीजियेगा।

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"ख्वाबों की मौत "

ख्वाबों की तहों को खोलकर छत पर रख दिया है ,
थोड़े सूख जाएंगे,
हल्के और मुलायम हो जाएंगे,
गीले ख्वाब ।

कही भाप बन उड़ तो नहीं जाएंगे,
या परिन्दा पंजों में पकड़ ले तो नहीं जाएंगे।

नहीं नहीं ...............!

सभी के ख्वाब सूख रहे छतों पर ,
बिल्कुल ताजा है कुछ कन्या भ्रूण -से ,
कुछ है मैले कुचैले - से रद्दी और बासी ,
बेटों की चाह-से,बेकार ख्वाब ,
ढेरों ख्वाब , ख्वाबों के ढेर ।

तभी गरीब की रोटी का ख्वाब
बनकर भाप उड़ गया ,
सभी ख्वाब हँसते है ताली बजाकर ,
और किसी ख्वाब को ले गया लठैत
गिरवी बताकर ।

किसी ख्वाब को बिठा पीठपर
ले गया है  बगुला भगत,
पटक दूर चट्टान पर
नोचकर खायेगा अब ।
सभी ख्वाब उठ गये इसी तरह
बारी बारी से।

अकेला मेरा ख्वाब बचा है ,
पड़ा है बेतरतीब धूप में,
और सूखे कोर फड़फड़ाते है
घायल परिन्दे-से ,
फिर तोड़ते है दम ।

अरे !   ये क्या ?........

बिलकुल अभी गिद्ध आया है आसमान में,
तेज निगाहों से देखता है नीचे ,

मै दौङता हूँ समेटने ख्वाबों को
गिर पङता हूँ फिसलकर ,
फिर उठता हूँ ..............मगर !!!!!
गिद्ध अब वहाँ नहीं है,
ख्वाब भी नहीं है,
माँस के टुकड़ें है और खून की चंद बून्दे है ,
ये ख्वाबों की मौत है ।
                     - अशोक गहलोत