Monday 14 November 2016

"चक्की में चक्की, चक्की में दाणा ~ कल की छुट्टी परसों आणा"

शनिवार का दिन मुझे तब से प्रिय है। जब एकसार चालीस तक पहाड़ागान करवाने के बाद हमारे गाँव वाली प्राइमरी स्कूल के इकलौते मास्साब (मास्टरजी) छाछ जैसी ठंडी सांस लेने के बाद खुद कुछ बोलने के लिए खड़े होते। गाँव-ढाणियों के लगभग सात बीसी (7×20=140) बदमाशों को दिन भर संभालने के बाद भी वो एक दम तरोताजा से लगते थे क्योंकि आज शनिवार होता था। खैर, सबसे पहले तो नाख़ून न काटने और बालों में तेल न लगाने के साथ न नहाने से होने वाले नुकसानों के बारे में एक आशुभाषण होता था जो हमेशा कुछ न कुछ बदलाव के साथ परोसा जाता था। (जो वाकई बड़ा मीठा लगता था क्योंकि कक्षा में किसी को व्यक्तिगत भाषण देते समय मास्साब साथ में चिटकी, बतासे और टिकड़ियां (सजाओं के नाम) दे देते थे।) हम सब एक दूसरे के नाख़ून देखकर वापिस अपने में रम जाते थे क्योंकि मास्साब द्वारा बोली जाने वाली अगली लाइन हमें सबसे प्यारी होती थी। मास्साब अटल बिहारी जी की तरह अपनी बात में थोड़ा सा गेप देकर बोलते, "हमे सीधा घरे जावो अर् सोमवार रा टाइम माथे आया। सिगळा ने चालीस तक पावड़ा (पहाड़े) याद होवणा चाहिजै....रोवता मति फिरिया(फालतू में इधर-उधर मत भटकना)।"
.....और सेना अपने-अपने पाटी-बस्ते समेटकर अगले ठिकाने के लिए यलगार-घोष के साथ कूच करती.....

"चक्की में चक्की, चक्की में दाणा
कल की छुट्टी, परसों आणा।"

#चिल्ड्रेन_डे

Tuesday 30 August 2016

अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान - "वही लड़की बार-बार..."

अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान - "वही लड़की बार-बार..."
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निःसंदेह प्रेम क्षणिक नहीं होता वो रगों में दौड़ते खून के हर कतरे में समा जाता है जब किसी से हो जाता है, उम्र के हर पड़ाव पर बल्कि ये कहना चाहिए कि ताउम्र वो अपना एहसास दिलाता रहता है और जब प्रेम अनकहा रह जाए या उसका इजहार न किया जाए तो वो कितना बेजोड़ और एहसासमय हो जाता है कुछ ऐसा ही एहसास कराती है कमलेश तिवारी की कहानी "वही लड़की बार-बार"। मित्रों कमलेश जी एक शिक्षक है और रंगमंच की दुनिया में भी अपनी अच्छी पहचान रखते है। सूर्यनगरी के उम्दा रंगकर्मियों में इनका नाम आता है। इतना ही नहीं वॉलीवुड की भी फिल्मों में इन्होंने अभिनय किया है।  रंगमंच से गहरा सम्बन्ध है तो इनकी कहानियों में वातावरण के साथ साथ पात्रों में भी ज्यादा जीवन्तता देखने को मिलती है। एक दृश्य देखिये - "सूरज इतना नीचे सरक आया कि धूप रौशनदान से तैरती हुई नीचे वाली खिड़की की जाली को चीरती हुई रामावतारजी की आँखों में गड़ने लगी। वे तुरंत अख़बार को आँखों के आगे फैला लेते हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य अख़बार पढ़ना है या धूप से बचना है, ये कहना ज़रा कठिन है। "
"वही लड़की बार बार" कहानी सुबह के सुरम्य वातावरण में शुरू होती है और एक साँझ पर आकर खत्म नहीं होती है बल्कि एक विराम लेती है असल में वो सुबह और शाम केंद्रीय पात्र रामावतार की उम्र ही है जिसका कलेवर लेखक बखूबी बुनता है। कहानी का कथ्य ही कुछ ऐसा है कि इसके पात्र जरुर बदल जाते है लेकिन ये कहानी कभी बदलती नहीं है। जो लोग अपने प्यार का इजहार कर देते है वो उस एहसास से चूक जाते है जो दिल की शिराओं से लेकर आकाश तक को कभी लाल सुर्ख होने का एहसास दिलाता है। ये एहसास ही तो व्यक्ति को बेरोक अनवरत यात्राएँ करवाता है। जहाँ वो कभी उन गलियों की, कभी उन बेतरतीब शामों की, कभी उन सूने मोड़ों की जहाँ जिंदगी सहमी हुई सी किसी खरगोश की भांति आंखें मूंदे हुए बैठी मिलती है और अनायास ही एक सरसरी शरीर के एक छोर से दूसरे छोर तक फैलती है और याद आता है वो प्यार जिसके सहारे उम्र पेंडुलम में रेत की तरह कण दर कद रिसती है। ऐसे कम लोग ही होते है जो रामावतार की तरह ये एहसास तमाम उम्र अपने साथ लेकर चलते है और वो लड़की बार बार आकर जिंदगी में कमाए हुए बेशकीमती हसीन पल खर्चने का मौका देती है।
इस कहानी की एक विशेष बात जिसने सबसे ज्यादा मेरा ध्यान आकृष्ट किया और आप भी अछूते नहीं रहेंगे वो यह कि कहानी का मुख्य पात्र कहानी के शुरू में भी अपना मुंह टेढ़ा कर लेता है या बिगाड़ लेता है व कहानी के आखिर में भी कुछ ऐसा ही करता है लेखक ने उम्र के इस पड़ाव को जिसमें अभी रामावतार है इंगित करते हुए बखूबी दिखाया है कि इस उम्र में हज़ार कोशिशों के बाद भी कोई व्यक्ति खुलकर विरोध नहीं कर सकता है या घट रही चीजों को नकार नहीं सकता है बल्कि वो सब कोन्सियस माइंड में चल रही बातों से तुलना कर हकीकत वाली बात को छोटा साबित करने के लिए मुंह बिगाड़ लेता है बस यही चारा रह जाता है। क्योंकि रामावतार के लिए दुनिया की कोई सुरीली आरती या स्वर लहरी है तो वो है सरू या सरस्वती की आवाज़ में, कपड़ों को तह करना, आरती गाना, सूजी का हलवा सब कुछ उनको सरू से जोड़ता है लेकिन सरू से अच्छा उनकी नज़र में कोई नहीं कर सकता। यही वो विराट और स्वर्णिम प्रेम है जिसके लिए हर कोई लालायित रहता है।
कहानी दो अलग अलग भौगौलिक परिवेशों को समेटे हुए है लेकिन उतराखंड वाला इश्कियाना माहौल पाठक में सहजता से उतरता है क्योंकि वहां कथानक ज्यादा प्रेममय हो जाता है। शिल्प के आधार पर बात करें तो उनका काम काफी सराहनीय है। कहानी फ्लेश-बैक शैली का सहारा लेती है जो कथ्य के हिसाब से उपयुक्त भी है।  संवाद और बिम्ब बेहद उम्दा है जो इस कहानी को विस्तार भी देते है तो दूसरी तरफ मन की परतों पर अपना मुलम्मा भी छोड़ जाते है।
कुल मिलाकर अनकहे इश्क की पवित्र दास्तान है "वही लड़की बार बार..." कमलेश जी को बहुत बहुत शुभकामनायें। उनका लेखन नित नयी ऊँचाइयों को छुए और वो ऐसी ही शानदार कहानियां पाठकों को देते रहे।
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के डी चारण
जोधपुर
29/11/2015
09782836083
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आप ये कहानी इस पते पर जाकर भी पढ़ सकते है।
http://kamaleshtewari.blogspot.in/2015/04/blog-post.html?m=1
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Wednesday 24 August 2016

अशोक गहलोत की कविता "ख्वाबों की मौत"

अशोक गहलोत साहित्य के उन विद्यार्थियों में से है जो महज परीक्षा पास करने के लिए नहीं पढ़ते है वो साहित्य में रूचि रखने वालों में से एक है। यही नहीं वो अपनी एक राय हर तरह की कविता और कहानी पर रखते है। इतिहास और व्यवहार शास्त्र में भी गहरी रूचि होने के कारण उनकी कविताओं में सिर्फ बड़बोलापन नहीं है बल्कि वो तटस्थ रहकर अपनी कविता में विचार का एक बीज भी रखते है। यहाँ मैं उनकी एक कविता रख रहा हूँ। आप भी पढ़कर  राय दीजियेगा।

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"ख्वाबों की मौत "

ख्वाबों की तहों को खोलकर छत पर रख दिया है ,
थोड़े सूख जाएंगे,
हल्के और मुलायम हो जाएंगे,
गीले ख्वाब ।

कही भाप बन उड़ तो नहीं जाएंगे,
या परिन्दा पंजों में पकड़ ले तो नहीं जाएंगे।

नहीं नहीं ...............!

सभी के ख्वाब सूख रहे छतों पर ,
बिल्कुल ताजा है कुछ कन्या भ्रूण -से ,
कुछ है मैले कुचैले - से रद्दी और बासी ,
बेटों की चाह-से,बेकार ख्वाब ,
ढेरों ख्वाब , ख्वाबों के ढेर ।

तभी गरीब की रोटी का ख्वाब
बनकर भाप उड़ गया ,
सभी ख्वाब हँसते है ताली बजाकर ,
और किसी ख्वाब को ले गया लठैत
गिरवी बताकर ।

किसी ख्वाब को बिठा पीठपर
ले गया है  बगुला भगत,
पटक दूर चट्टान पर
नोचकर खायेगा अब ।
सभी ख्वाब उठ गये इसी तरह
बारी बारी से।

अकेला मेरा ख्वाब बचा है ,
पड़ा है बेतरतीब धूप में,
और सूखे कोर फड़फड़ाते है
घायल परिन्दे-से ,
फिर तोड़ते है दम ।

अरे !   ये क्या ?........

बिलकुल अभी गिद्ध आया है आसमान में,
तेज निगाहों से देखता है नीचे ,

मै दौङता हूँ समेटने ख्वाबों को
गिर पङता हूँ फिसलकर ,
फिर उठता हूँ ..............मगर !!!!!
गिद्ध अब वहाँ नहीं है,
ख्वाब भी नहीं है,
माँस के टुकड़ें है और खून की चंद बून्दे है ,
ये ख्वाबों की मौत है ।
                     - अशोक गहलोत

Sunday 8 May 2016

रजनीगंधा का विपर्याय

रजनीगन्धा हूँ मैं,
रंगोआब खुशबू से शेष
जी, हां रजनीगंधा ही हूँ मैं,
वह रंगोआब, खुशबू वाला पुष्प नहीं,
जो जीवन में भाव भरता है,
नयापन लाता है।
समय रंगकर होठों की लाली बढाने वाली,
पीक के लाल छर्रों वाली,
मुलायम-कठोर कणों के गुण धर्म वाली
रजनीगन्धा ही हूँ मैं।

एक पतली परतदार चिकनी, चमकीली,
लजीज पोटली,
जिसे रसिक फाड़कर,
कुछ देर बाद,
स्वादहीन करके पीक के छर्रों से,
उगल देता है पीकदान में,
या इधर-उधर,
उछालता है हर कण,
स्वादसुधा से विभोर होकर,
कुछ तो निगल ही जाते है कमबख्त
जी, हां रजनीगंधा ही हूँ मैं।

अनवरत मेरी शार्गिदी,
अच्छी बात नहीं,
फिर मैं अपनी रक्तिमता जमाकर,
अशेष कर देती हूँ अपने ही रसिक को,
हाँ, रजनीगंधा हूँ मैं।

पीक के लाल छर्रों वाली।
जिससे वक्त का जर्रा रंगकर,
एक स्वादातुर रसिक कणों के साथ खेलता हूं,
समय को ढेलता है,
कुछ देर बाद मुझे ही धकेलता है,
आखिरकार मैं ही उसके राग का कारण बनती हूं।
रजनीगंधा हूँ मैं, जिसे कुछ लोग स्त्री कह देते है।

पीक के लाल छर्रों वाली
पतली, परतदार, चिकनी, चमकीली
लजीज पोटली।
रंगोआब, खुशबू से शेष,
जी हाँ, रजनीगंधा ही हूं मैं।  

[फोटो - साभार गूगल]

Sunday 24 January 2016

क्या करे इस देश का युवा...??? जिन्दगी की ये कैसी परीक्षा ले रहे है नौकरी देने वाले ??

क्या करे इस देश का युवा...??? जिन्दगी की ये कैसी परीक्षा ले रहे है नौकरी देने वाले ??
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लगभग साढ़े बारह बजे का समय हो रहा था। वो मेरे पास आया.....इस बार उसके चेहरे पर क्या भाव थे मेरी समझ से बाहर थे। वो मेरे पास आया उससे पहले मैंने देखा उसके चेहरे पर ये क्या था...??  पूरे चेहरे को पढने के बाद महज एक अनुस्वार ही नज़र आया।
मैंने कुछ रूखे अंदाज़ में ही पूछा था - एग्जाम कैसा हुआ??
और वो फूट पड़ा। उसकी मुखाकृति विकृत होते-होते उस अनुस्वार से एक बहुत बड़े वृत्त में तब्दील हो गयी, उस वृत्त में सारी व्यवस्थाओं का थूक नज़र आ रहा था जो अब बहुत ही मैला और दुर्गंधमय हो चुका है। उसमें ऐसी दुर्गन्ध आ रही थी कि मेरे लिए उसके पास बैठना तक कठिन हो रहा था मगर असल में ये गंध सब ओर थी, बस हम उसकी दुर्गन्ध को महसूस करके भी उसे साफ़ नहीं कर पा रहे है।
मैंने उसकी आँखों की तरफ देखा पर उसमें आँसू का एक भी कतरा नहीं था, होगा भी कहाँ से??? पिछले कुछ महीनों में वो उनको बहुत अच्छे से सुखा चुका था। कुछ ही महीने हुए थे वो शहर में आया था एक तृतीय श्रेणी सरकारी परीक्षा की तैयारी करने, जब वो पहली बार मिला था तब बहुत उत्साहित था। एक बार की बातचीत में ही उसने कई बार बताया था कि इस बार उसकी सरकारी नौकरी लग जायेगी, बहुत मेहनत कर रहा है, रात दिन एक कर दिए है।
लेकिन आज इसको क्या हुआ??? ये विकृतियाँ कैसी है इसके चेहरे पर.......किसके प्रति है...??? उसके चेहरे पर महज दो हड्डियाँ उभरी हुई है और आँखें काफी सूजी हुई सी जान पड़ती है।
उसने रोते-रोते ही हिलते हुए स्वर में बताया सब बोल रहे है, "पेपर आउट हो गया है या तो कई महीनों बाद वापिस होगा या फिर निरस्त कर दिया जाएगा...."         ( और उसका चेहरा फिर एक भयंकर अनुस्वार बन गया....)
मैंने देखा था आज ही सुबह उस कुल्फी जम जाने वाली भयंकर ठण्ड में कई चेहरे धूजते-धूजते बहुत तेजी से कोहरे में स्पष्ट हो रहे थे और मिट रहे थे। उनके चेहरों पर कौतुहल था। उनमें से कई ऐसे भी थे जो अपने खेत की फसल के  बर्बाद हो जाने के बाद भी एक फैसला लेकर शहर आये थे, उस उम्मीद को सच करने के लिए जो उनके पिता या माँ ने देखी थी। कई ऐसे भी थे जिनके घर वालों ने उनकी बहन की शादी इस बार निरस्त की थी, कई ऐसे भी थे जिनको अपनी शादी करवानी है और उसके लिए सरकारी नौकरी आवश्यक शर्त के रूप में घरवालों ने रखी है, कई चेहरे वो भी थे जिन्होंने 10,000/- की बड़ी रकम अपनी जिंदगी में पहली बार अपने हाथों में पकड़ कर ट्युसन सेण्टर के मालिक को सौंपी थी। कुछ ऐसे थे जो बस घर से कुछ देर के लिए दूर जाना चाहते थे। पर उनके सपनों का हुआ क्या...?? उनकी उम्मीदों को ये कैसा धुँआ लगा...???
मेरे पास कोई जवाब उसको देने के लिए नहीं था। क्योंकि मैं सुन रहा था सुबह सात बजे से कि आज का पेपर व्हाट्स एप की सवारी करके घूम रहा था। वो महज व्हाट्स एप का कंटेंट नहीं था कई लोगों के लिए यमराज था जो व्हाट्स एप जैसे भैंसे पर चढ़कर घूम रहा था। क्या असर करेगा वो...?? हे! भगवान् मेरे युवाओं को सदबुद्धि देना....उनमें सद्भाव और आशावाद भरना।

Wednesday 20 January 2016

गिद्ध का बयान

(अचानक एक मटमैले और कुरूप से पक्षी का प्रवेश होता है, वहां उपस्थित लोग चौक जाते है।)

क्या हुआ ?
चौक गये………..? मुझे देखकर……….
अरे! मैं भी मूर्ख हूं, कई दिनों बाद देखा होगा,
मेरी प्रजाति का वंशज,
मैं गिद्ध हूं,
मिट्टी का भक्षक,
कालचक्र का अदना सा राही,
चौकिए मत……..
एक सच बयान करना था,
जो कचोट रहा था भीतर तक,
आखिर क्यों आते हम यहां,
दुर्भिक्ष और अकाल के देश में,
जरा और दारूण्य के देश में,
मस्त है हम,
घनी आबादी वाले अमीर शहरों में,
बहुत मिल जाता है खाने को,

इतना कि-
रोज ईद और दिवाली बनी रहती है,
इतना कि-
बच्चे सुबह का बचा शाम को,
अर्
शाम का बचा सुबह को नहीं खाते,
नहीं उड़ना पड़ता सैकड़ो कोसों क्षितिज पर,
धरती पर कहीं नजर पड़ी,
मिल जाती है ताजा गोस्त की पेटी,
वो भी जानवरों की नहीं,
कहते हुए घिन्न आती है………..
इंसानों की………..हां, सच में इंसानों की।।
(गिद्ध की नजरें झुक जाती है।)
याद हैं मुझे पुरखों के किस्से,
जब नसीब नहीं था, मांस का एक टुकड़ा,
हफ्ते बीत जाते थे-
किसी पशु की अस्थियां चंचोलते-चंचोलते,
बहुत तप किया तब पायी पुरखों ने,
ये सौ कोस की पैनी नजर,
ताकि उपर से दिख सके धरती का मंज़र,
वीराने में पड़ा बेज़ान अस्थिपंजर,
टूट पड़ते थे बोटी-बोटी के लिए,
बड़ी कसमकस थी,
एक दुसरे को पछाड़ने की होड़ थी,
जीने की जुगत में दौड़ थी,
पर आज……….
सब कुछ बदल सा गया है…………….(गिद्ध की आंखें भर आती है।)
लौटाना चाहता हूं पुरखों का वह दुर्लभ वर
जिसमें बख्शी थी सौ कोस की पैनी नजर,
हर तरफ दिखते है मौत के बवंडर,
सच कहता हूं दिखते है……….
इंसान बहुत कम, हैवान हद से ज्यादा,
मौत का मंज़र देखने की,
काफी है मेरी नैसर्गिक आंखें,
मन उड़ान चाहता है,
दो पल की सैर चाहता है बच्चों संग,
पर,
सहम जाते हे पंख पिछली उड़ान के,
विभत्स दृश्यों का प्रत्यास्मरण कर………..(गला अवरूद्ध हो जाता है।)
बचाना चाहते हो ना मानव मेरी प्रजाति को……??
सौ दफा सोचो अपनी जाति पर आया संकट,
हम तो बचे है अभी अनुपात में,
पर तुम खुद को तो पहचानो,

कितने बचे है तुम्हारी जाति के………??
बहुत कम होंगे मानव,
जो रखते है मानवता का अंश निज में,
हैवान अर् शैतान ही नजर आते है,

हर गलियारे और नुक्कड़ पर,
मैं देखता हूं हर रोज फफकती,बिलखती मानवता को,
जो बचे हैं गुंथे है निज स्वार्थों की गुदड़ी में,
बोलकर कुछ कहना नहीं चाहते,
और,
बदलकर कुछ खोना नहीं चाहते,
मैं भी भयभीत हूं,
छिपा के आया था बच्चों को,
बामुश्किल मिले खेजड़े की खोह में,
वे बहुत छोटे है अभी,
देना चाहता हूं अपनी प्रजाति के संस्कार,
जैसे भी मुझे मिले है,
माफ करियेगा महानुभाव,
कुछ ज्यादा तो नहीं बोल गया
गौर कीजिएगा मेरी बात पर……………
(गिद्ध उड़ जाता है धीरे-धीरे नज़रों से ओझल हो जाता है।)

Monday 18 January 2016

मेरा मौन

मुझमें एक मौन मचलता है,

भावों में आवारा घुलकर मस्त डोलता है,

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

शिशुओं की करतल चालों में,

आवारा यौवन सालों में,

मदिरा के उन्मत प्यालों में,

बुढ्ढे काका के गालों में, रोज बिलखता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


लैला मज़नू की गल्पें सुनकर,

औरों की आँखों से छुपकर,

भीतर मन की दशा समझकर,

प्रेम वेदना मे आतप हो , रोज दहकता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


कर खाली अपनी झोली को,

पैमानों से पार उतरकर,

पुष्प कुंज का भौरा बनकर,

कलियों की अभिलाषा सुनकर, रोज बहकता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

श्वेद् कणों का परख पऱिश्रम,

खुद में भरता है बल-विक्रम,

आशाओं की लाद गठरिया,

अथक परिश्रम के अश्वों संग,रोज विचरता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

पथिकों को एक राह दिखाकर,

मन का मैला भाव मिटाकर,

विरोचित कार्यों में लगकर,

स्वाभिमान की हुँकारों में, रोज गरजता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

ड्योढी के उस पार मचलता,

शोक सभाओं मे मुरझाता,

पल-पल खुद को पुष्ट बताता,

मूक बधिरो के हाथों में, रोज उलझता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

 न्याय सभा से छुपके करते,

कौड़ी के खातिर जो मरते,

घूस खोर सत्ताधारी संग,

लोकतंत्र की पासवान को, रोज निरखता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


गांधी का दिग्दर्शन पढ़कर,

प्रेमचंद का मर्म समझ कर,

राष्ट्र धर्म की ओढ़ चदरिया,

चिकनी चुपड़ी चाट रहे,श्वानों पर रोज बिफरता है

मुझमे एक मौन मचलता है।

सबसे पहले माँ को नमन.....

सबसे पहले माँ को नमन

पहली बार ब्लॉग लिख रहा हूँ और हमारी परंपरा रही है शक्ति उपासक होने के नाते कि जब भी लेखन का या कोई भी नया काम शुरू करें तो माँ (आदिशक्ति) को याद जरुर करना चाहिए। माँ से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे लेखन में सूक्ष्मता से उतरे और कलम के माध्यम से मैं हर बार शब्दों की अञ्जलि उनको समर्पित कर सकूँ ऐसी सच्चाई मेरे शब्दों में बनाये रखे। मैं माँ करणी को प्रणाम कर नवलेखन के इस माध्यम को अपना रहा हूँ उम्मीद है माँ करणी का आशीष वितान सदैव मुझ पर बना रहेगा और उनकी छत्रछाया में मेरा लेखन होता रहेगा।
जय माता दी। जय करणी।।