कुछ अरसा पहले गुलज़ार साहब से मैं मिला था पर कुछ भी बोल नहीं पाया। एक लंबे व्यक्तव्य को और जिंदगी की कटी-फटी कहानी को बस दो मिनट में समेटने में माहिर नहीं हूँ मैं ।....और ना ही सवालों की आंच से बुद्धि को रोशन करने का पक्षधर होने का दावा कर रहा था उस वक्त....... काश ! मैं एक अच्छा वक्ता होता और जिंदगी को कुछ लफ्जों के मानी में लपेटकर उनसे कुछ साझा कर पाता....! कुछ पूछ पाता...कि कैसा है इसका स्वाद...?? कड़वा..? मीठा..? नमकीन...? या ये बेस्वाद ही है..??
क्या बोलना है? क्या पूछना है? पहली पूरी रात इसी में खपा दी।
....और एन वक्त मैं कुछ भी बोल नहीं पाया...बस शॉल में धड़कते एक दिल और होंठों के बहुत भीतर होले-होले मगर गंभीरता से आदमी होने की कोई सुगबुगाहट सुनी थी। अब जो घटना निःशब्द ही खामोशियों में घट गयी उसे शब्दाकार कैसे दूँ समझ में नहीं आता?
काश ! मैं एक लेखक होता और वो सब लिख पाता और बता पाता कि कैसा लगा था मुझे उनसे मिलकर.....!!
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