गांव वाली स्कूल में पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के कार्यक्रम में एक गीत हमेशा तय सा था'ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गांव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के' ....ये गीत मुझे पसंद भी था और नापसंद भी....क्योंकि सुनने में ये गीत उस समय मुझे बहुत अच्छा लगता था। कबूतरी रंग की शर्ट और खाकी रंग की पेंट पहने चार लड़के जब इस गीत को गाते थे तो रोम-रोम उत्साह से पुलक उठता था लेकिन जैसे ही बात इस गीत को समझने की आती थी या जब मैं पीपल के गट्टे के नीचे लग रही क्लास के दौरान जब इस गीत को मन ही मन गुनगुनाता तो इसके अर्थ के बारे में सोचने लग जाता था और पहली ही लाइन पर फुल स्टॉप लग जाता था । इसका कारण था मैं 'मशालें' शब्द को 'मसाले' पढता, सुनता और समझता था और पूरे गीत का गुड़-गोबर हो जाता था....कई सालों तक सोचता रहा की मसाले लेकर चले है गांव वाले तो सब्जी बना लेंगे लेकिन अँधेरा कैसे दूर होगा....??
खैर, समय के घोड़े पर सवार मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो इसका एक जुदा अर्थ मैंने अपने हिसाब से सेट कर लिया। ....और वो अर्थ था....जब मसाले लेकर सब्जी बना लेंगे, उसे खाने के बाद सब काम पर चले जायेंगे, कुछ कमा कर लाएंगे और लोग अँधेरा जीत लेंगे......कई साल यही अर्थ चला और मैं गीत गुनगुनाता रहा....। हाँ, मैं ये गीत अब भी कई बार गुनगुनाता हूँ लेकिन अब सही अर्थ पता है मगर वो विश्वास कहीं खो सा गया है जो बचपन में भ्रमित अर्थ के साथ हुआ करता था।
सधन्यवाद - के डी चारण