Sunday, 24 January 2016

क्या करे इस देश का युवा...??? जिन्दगी की ये कैसी परीक्षा ले रहे है नौकरी देने वाले ??

क्या करे इस देश का युवा...??? जिन्दगी की ये कैसी परीक्षा ले रहे है नौकरी देने वाले ??
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लगभग साढ़े बारह बजे का समय हो रहा था। वो मेरे पास आया.....इस बार उसके चेहरे पर क्या भाव थे मेरी समझ से बाहर थे। वो मेरे पास आया उससे पहले मैंने देखा उसके चेहरे पर ये क्या था...??  पूरे चेहरे को पढने के बाद महज एक अनुस्वार ही नज़र आया।
मैंने कुछ रूखे अंदाज़ में ही पूछा था - एग्जाम कैसा हुआ??
और वो फूट पड़ा। उसकी मुखाकृति विकृत होते-होते उस अनुस्वार से एक बहुत बड़े वृत्त में तब्दील हो गयी, उस वृत्त में सारी व्यवस्थाओं का थूक नज़र आ रहा था जो अब बहुत ही मैला और दुर्गंधमय हो चुका है। उसमें ऐसी दुर्गन्ध आ रही थी कि मेरे लिए उसके पास बैठना तक कठिन हो रहा था मगर असल में ये गंध सब ओर थी, बस हम उसकी दुर्गन्ध को महसूस करके भी उसे साफ़ नहीं कर पा रहे है।
मैंने उसकी आँखों की तरफ देखा पर उसमें आँसू का एक भी कतरा नहीं था, होगा भी कहाँ से??? पिछले कुछ महीनों में वो उनको बहुत अच्छे से सुखा चुका था। कुछ ही महीने हुए थे वो शहर में आया था एक तृतीय श्रेणी सरकारी परीक्षा की तैयारी करने, जब वो पहली बार मिला था तब बहुत उत्साहित था। एक बार की बातचीत में ही उसने कई बार बताया था कि इस बार उसकी सरकारी नौकरी लग जायेगी, बहुत मेहनत कर रहा है, रात दिन एक कर दिए है।
लेकिन आज इसको क्या हुआ??? ये विकृतियाँ कैसी है इसके चेहरे पर.......किसके प्रति है...??? उसके चेहरे पर महज दो हड्डियाँ उभरी हुई है और आँखें काफी सूजी हुई सी जान पड़ती है।
उसने रोते-रोते ही हिलते हुए स्वर में बताया सब बोल रहे है, "पेपर आउट हो गया है या तो कई महीनों बाद वापिस होगा या फिर निरस्त कर दिया जाएगा...."         ( और उसका चेहरा फिर एक भयंकर अनुस्वार बन गया....)
मैंने देखा था आज ही सुबह उस कुल्फी जम जाने वाली भयंकर ठण्ड में कई चेहरे धूजते-धूजते बहुत तेजी से कोहरे में स्पष्ट हो रहे थे और मिट रहे थे। उनके चेहरों पर कौतुहल था। उनमें से कई ऐसे भी थे जो अपने खेत की फसल के  बर्बाद हो जाने के बाद भी एक फैसला लेकर शहर आये थे, उस उम्मीद को सच करने के लिए जो उनके पिता या माँ ने देखी थी। कई ऐसे भी थे जिनके घर वालों ने उनकी बहन की शादी इस बार निरस्त की थी, कई ऐसे भी थे जिनको अपनी शादी करवानी है और उसके लिए सरकारी नौकरी आवश्यक शर्त के रूप में घरवालों ने रखी है, कई चेहरे वो भी थे जिन्होंने 10,000/- की बड़ी रकम अपनी जिंदगी में पहली बार अपने हाथों में पकड़ कर ट्युसन सेण्टर के मालिक को सौंपी थी। कुछ ऐसे थे जो बस घर से कुछ देर के लिए दूर जाना चाहते थे। पर उनके सपनों का हुआ क्या...?? उनकी उम्मीदों को ये कैसा धुँआ लगा...???
मेरे पास कोई जवाब उसको देने के लिए नहीं था। क्योंकि मैं सुन रहा था सुबह सात बजे से कि आज का पेपर व्हाट्स एप की सवारी करके घूम रहा था। वो महज व्हाट्स एप का कंटेंट नहीं था कई लोगों के लिए यमराज था जो व्हाट्स एप जैसे भैंसे पर चढ़कर घूम रहा था। क्या असर करेगा वो...?? हे! भगवान् मेरे युवाओं को सदबुद्धि देना....उनमें सद्भाव और आशावाद भरना।

Wednesday, 20 January 2016

गिद्ध का बयान

(अचानक एक मटमैले और कुरूप से पक्षी का प्रवेश होता है, वहां उपस्थित लोग चौक जाते है।)

क्या हुआ ?
चौक गये………..? मुझे देखकर……….
अरे! मैं भी मूर्ख हूं, कई दिनों बाद देखा होगा,
मेरी प्रजाति का वंशज,
मैं गिद्ध हूं,
मिट्टी का भक्षक,
कालचक्र का अदना सा राही,
चौकिए मत……..
एक सच बयान करना था,
जो कचोट रहा था भीतर तक,
आखिर क्यों आते हम यहां,
दुर्भिक्ष और अकाल के देश में,
जरा और दारूण्य के देश में,
मस्त है हम,
घनी आबादी वाले अमीर शहरों में,
बहुत मिल जाता है खाने को,

इतना कि-
रोज ईद और दिवाली बनी रहती है,
इतना कि-
बच्चे सुबह का बचा शाम को,
अर्
शाम का बचा सुबह को नहीं खाते,
नहीं उड़ना पड़ता सैकड़ो कोसों क्षितिज पर,
धरती पर कहीं नजर पड़ी,
मिल जाती है ताजा गोस्त की पेटी,
वो भी जानवरों की नहीं,
कहते हुए घिन्न आती है………..
इंसानों की………..हां, सच में इंसानों की।।
(गिद्ध की नजरें झुक जाती है।)
याद हैं मुझे पुरखों के किस्से,
जब नसीब नहीं था, मांस का एक टुकड़ा,
हफ्ते बीत जाते थे-
किसी पशु की अस्थियां चंचोलते-चंचोलते,
बहुत तप किया तब पायी पुरखों ने,
ये सौ कोस की पैनी नजर,
ताकि उपर से दिख सके धरती का मंज़र,
वीराने में पड़ा बेज़ान अस्थिपंजर,
टूट पड़ते थे बोटी-बोटी के लिए,
बड़ी कसमकस थी,
एक दुसरे को पछाड़ने की होड़ थी,
जीने की जुगत में दौड़ थी,
पर आज……….
सब कुछ बदल सा गया है…………….(गिद्ध की आंखें भर आती है।)
लौटाना चाहता हूं पुरखों का वह दुर्लभ वर
जिसमें बख्शी थी सौ कोस की पैनी नजर,
हर तरफ दिखते है मौत के बवंडर,
सच कहता हूं दिखते है……….
इंसान बहुत कम, हैवान हद से ज्यादा,
मौत का मंज़र देखने की,
काफी है मेरी नैसर्गिक आंखें,
मन उड़ान चाहता है,
दो पल की सैर चाहता है बच्चों संग,
पर,
सहम जाते हे पंख पिछली उड़ान के,
विभत्स दृश्यों का प्रत्यास्मरण कर………..(गला अवरूद्ध हो जाता है।)
बचाना चाहते हो ना मानव मेरी प्रजाति को……??
सौ दफा सोचो अपनी जाति पर आया संकट,
हम तो बचे है अभी अनुपात में,
पर तुम खुद को तो पहचानो,

कितने बचे है तुम्हारी जाति के………??
बहुत कम होंगे मानव,
जो रखते है मानवता का अंश निज में,
हैवान अर् शैतान ही नजर आते है,

हर गलियारे और नुक्कड़ पर,
मैं देखता हूं हर रोज फफकती,बिलखती मानवता को,
जो बचे हैं गुंथे है निज स्वार्थों की गुदड़ी में,
बोलकर कुछ कहना नहीं चाहते,
और,
बदलकर कुछ खोना नहीं चाहते,
मैं भी भयभीत हूं,
छिपा के आया था बच्चों को,
बामुश्किल मिले खेजड़े की खोह में,
वे बहुत छोटे है अभी,
देना चाहता हूं अपनी प्रजाति के संस्कार,
जैसे भी मुझे मिले है,
माफ करियेगा महानुभाव,
कुछ ज्यादा तो नहीं बोल गया
गौर कीजिएगा मेरी बात पर……………
(गिद्ध उड़ जाता है धीरे-धीरे नज़रों से ओझल हो जाता है।)

Monday, 18 January 2016

मेरा मौन

मुझमें एक मौन मचलता है,

भावों में आवारा घुलकर मस्त डोलता है,

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

शिशुओं की करतल चालों में,

आवारा यौवन सालों में,

मदिरा के उन्मत प्यालों में,

बुढ्ढे काका के गालों में, रोज बिलखता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


लैला मज़नू की गल्पें सुनकर,

औरों की आँखों से छुपकर,

भीतर मन की दशा समझकर,

प्रेम वेदना मे आतप हो , रोज दहकता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


कर खाली अपनी झोली को,

पैमानों से पार उतरकर,

पुष्प कुंज का भौरा बनकर,

कलियों की अभिलाषा सुनकर, रोज बहकता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

श्वेद् कणों का परख पऱिश्रम,

खुद में भरता है बल-विक्रम,

आशाओं की लाद गठरिया,

अथक परिश्रम के अश्वों संग,रोज विचरता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

पथिकों को एक राह दिखाकर,

मन का मैला भाव मिटाकर,

विरोचित कार्यों में लगकर,

स्वाभिमान की हुँकारों में, रोज गरजता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

ड्योढी के उस पार मचलता,

शोक सभाओं मे मुरझाता,

पल-पल खुद को पुष्ट बताता,

मूक बधिरो के हाथों में, रोज उलझता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।

 

 न्याय सभा से छुपके करते,

कौड़ी के खातिर जो मरते,

घूस खोर सत्ताधारी संग,

लोकतंत्र की पासवान को, रोज निरखता है।

मुझमें एक मौन मचलता है।


गांधी का दिग्दर्शन पढ़कर,

प्रेमचंद का मर्म समझ कर,

राष्ट्र धर्म की ओढ़ चदरिया,

चिकनी चुपड़ी चाट रहे,श्वानों पर रोज बिफरता है

मुझमे एक मौन मचलता है।

सबसे पहले माँ को नमन.....

सबसे पहले माँ को नमन

पहली बार ब्लॉग लिख रहा हूँ और हमारी परंपरा रही है शक्ति उपासक होने के नाते कि जब भी लेखन का या कोई भी नया काम शुरू करें तो माँ (आदिशक्ति) को याद जरुर करना चाहिए। माँ से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे लेखन में सूक्ष्मता से उतरे और कलम के माध्यम से मैं हर बार शब्दों की अञ्जलि उनको समर्पित कर सकूँ ऐसी सच्चाई मेरे शब्दों में बनाये रखे। मैं माँ करणी को प्रणाम कर नवलेखन के इस माध्यम को अपना रहा हूँ उम्मीद है माँ करणी का आशीष वितान सदैव मुझ पर बना रहेगा और उनकी छत्रछाया में मेरा लेखन होता रहेगा।
जय माता दी। जय करणी।।