दिन भर ज़िन्दगी की धूणी तापते-तापते बंजारे शाम होने से पहले फिर से अपने पेट को लाल अंगोछिये से कसके बांधकर निकल पड़ते है क्योंकि उन्हें पता है रात भर रेत के फिसलने की आवाजों को सुनना सबसे दर्दनाक होता है। उन्हें आज भी यही लगता है कि अँधेरे से भी ज्यादा डरावनी लगती है भूखे पेट की धंसी हुई अँधेरी-खोखली आँखें। जिसमें दुनिया की सबसे जहरीली वेदना छटपटा रही होती है।
इसलिए वो रात में बच्चों को सुनाई जाने वाली लोरी को
बस्ती के तमाम नुक्कड़ों से गुजरते हुए ऊँचे आलापों में गा देते है। लोग समझते है कि वो अपना सौदा बेचने को पुकार रहे है पर हकीकत में वो अपने दड़बे की खुशामदी के लिए आकुल कंठों से कोई प्रार्थना कर रहे होते है।
क्या तुमने कभी अपने भीतरी कानों से सुनी है उनके गाने के आरोह-अवरोहों के बीच सप्तक से बहुत ऊपर को उठती हुई कोई राग-रागिनी..??
अगर नहीं, तो तुमने बहुत कुछ गंवा दिया है जो इस धरती पर सुनने लायक मौलिक और प्राकृत था।
#बंजारे_गाते_रहेंगे_सुन_सको_तो_सुनना