Tuesday, 21 November 2017

जॉर्डन हो जाना उतना आसान भी नहीं होता



जॉर्डन,कहने को तो बॉलीवुड की मशहूर फिल्म 'रॉकस्टार' का एक काल्पनिक पात्र है  जिसे इम्तियाज़ अली ने निर्देशित किया था लेकिन यह एक ऐसा पात्र है जो काल्पनिक होने के बावजूद भी हूबहू सच जैसा ही लगता है क्योंकि थोड़ा-थोड़ा जॉर्डन हम सब में कहीं न कहीं दबा-कुचला उम्र के आखिरी कश तक भीतर ही भीतर कराहता रहता है।

कुछ किताबें और कुछ फ़िल्में ऐसी होती है कि उनका नशा दिल-औ-दिमाग से उतरता ही नहीं है बस बढ़ता ही जाता है। कुछ ऐसी ही फिल्म है 'रॉकस्टार' जिसमें जनार्दन जाखड़ उर्फ़ जॉर्डन का किरदार निभाया था, रणबीर कपूर ने। मेरा व्यक्तिगत रूप से ये मानना है कि रणबीर कपूर इस चरित्र के लिए ताउम्र जाने जायेंगे, चाहे वो एक हजार करोड़ की कमाई वाली फिल्म ही क्यों न कर ले। इस साल फिल्म को छः बरस हो गए है लेकिन लोकप्रियता और खुमार अब भी उतना ही है बल्कि मैं तो ये कहूंगा अब तो और ज्यादा बढ़ रहा है क्योंकि जॉर्डन सदियों-दशकों में एक-आध ही पैदा होते है।



इस तरह के किरदार एक ऐसी छवि बनाते है, जिसमें हमारे व्यक्तित्व के अंदरूनी हिस्से का बहुत कुछ मेल खाता है मगर हम सामाजिक ओरांग-उटांग के मकड़जाल में ऐसे जकड़े होते है कि ज़िन्दगी में कभी जॉर्डन बनने की हिमाकत ही नहीं कर पाते है।

वो कहते है न "फिर पछताये होत क्या? जब चिड़िया चुग गयी खेत" कुछ ऐसा ही नतीजा हमारे हिस्से के वक्त की दीवार पर लिखा मिलता है क्योंकि असल जिंदगी में हम जॉर्डन नहीं बल्कि कुछ और ही बने घूमते है जबकि बनना तो जॉर्डन ही चाहते है। फरेबी जिंदगी से मुक्त हो जाना ही असल में जॉर्डन हो जाना होता है और ये बनने के लिए आदमी जी-तोड़ प्रयास करता है लेकिन बन कुछ और जाता है।

इस फिल्म का ये किरदार भी बस जिंदगी की इसी सच्चाई को हमारे सामने रखता है कि हम जो है वो हम दिखते नहीं है और जो दिखते है असल में वो है नहीं। जॉर्डन, एक ऐसी छवि है जो ऊपरी तौर पर बन जाना या कहलाना तो आसान है पर असल में जॉर्डन होना उतना आसान भी नहीं क्योंकि जॉर्डन हो जाना अपने आप से और सब चीजों से एक अलहदा तरीके से मुक्त हो जाना होता है।

अब आप सोचते होंगे, होने को तो सब आसान है और सब चीजें मुश्किल है लेकिन मैं कहूंगा मुश्किल और आसानी से भी ऊपर कुछ होता है जिसे हमारी भाषा में असंभव होना कहा जाता है, बस उसी को हासिल करना ही हमें जॉर्डन बना सकता है। घर-परिवार, समाज, धर्म, रिश्ते, जिम्म्मेदारियां और ना ना विध बातें जो हमारे चारों तरफ घट रही है उन सब में ना होते हुए भी शरीक होना जॉर्डन होना होता है।

जो लोग इस पात्र को महज एक प्रेम कहानी का पात्र मानकर देखते है उनसे मैं यही कहूंगा कि जॉर्डन असल में प्राकृत है, वो किसी परिभाषा में बांधा जा सके यह संभव नहीं है। उसमें प्रेम पात्र बनने, विध्वंस का हौसला बनने, हक़ का नुमाइंदा बनने, बेलौस अल्हड़ता का पात्र बनने के सब गुण और अवगुण वर्तमान रहते है, इसलिए जॉर्डन बनना तो कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जॉर्डन हो जाना अपने आप में एक असंभव कारनामे को कर दिखाने जैसा है।

Friday, 3 November 2017

सुनो सैलानी! इन पहाड़ों से कभी कोई झूठा वादा न करना।



पहाड़ों के अपने-अपने रहस्य होते है और वो ये रहस्य हर किसी से बतियाते नहीं है। बहुत से लोग होंगे जो पहाड़ों को पसंद करते है पर वो जिसे पसंद करते है वे उसे ही अपना रहस्य किसी समवेत स्वर में एक तान सुनाते है। 

लोग कहते है कि पहाड़ों के अपने राग-रंग होते है पर मैं मानता हूँ इन पहाड़ों को हम जो राग सुनाते है वही राग प्रतिध्वनि के रूप में हमें पुनः सुनाते है, इन्हें हम जिस रंग में रंगना चाहते है ये उसी में मस्ताने होकर हमें अपनी पीठ पर लादकर इतराते हुए इधर से उधर लिए फिरते है ताकि उन्हें कुछ समय के लिए ही सही एक अदद साथी मिल सके। ....मगर जब हमारा मन भर जाता है तो इनके चेहरे को एक लंबी सी साँस के साथ निहारते हुए न चाहते हुए भी विदा ले लेते है। याद रखना इस तरह विदा होना पहाड़ों को बहुत अखरता है, वे आँसू तो नहीं बहाते है पर भीतर ही भीतर रोते जरूर है। फिर वे अगले कुछ दिनों तक अपने आप को सहज बनाने में लग जाते है और अपने आप से एक वादा करते है कि अब वे फिर से किसी परदेशी से इतना हेत नहीं साधेंगे, इतनी प्रीत नहीं करेंगे।

......लेकिन नियति से मजबूर है बेचारे पहाड़! अगली दफा फिर किसी की प्रीत में हौले-हौले गुनगुनाने लगते है, चांदनी में नहाकर, छोटे-छोटे पौधों और घास-फूस से सज-धजकर, जो भी रंग सैलानी को आकर्षित कर सकता है वही रंग ओढ़कर वो फिर से मिलन की राग आलापने लग जाते है क्योंकि उन्हें पता है उनका जीवन ही पहाड़ सरीखा है इसलिए वो तन्हा नहीं रहना चाहते।

सुनो सैलानी !! तुम इस बार पहाड़ के पास जाओ तो उससे कोई लज़ीज़ वादा ना करना और ना ही उनको इस तरह बिना आँसुओं के रुलाना क्योंकि मैं जानता हूँ बिना आँसुओं के रोने का दर्द क्या होता है !
तुम उनसे प्रेम भरी बातें जरूर कर लेना लेकिन लौटते समय अपने साथ अपने देश में उनका दिल मत ले आना क्योंकि उनका दिल वहीं लगता है जहाँ के वे होते है पर उनकी एक मजबूरी है कि जैसे हम मनबहलाव के लिए उनके पास चले जाते है, कभी सशरीर तो कभी कल्पनाओं में वैसे वो हमारे साथ नहीं आ सकते । शायद इसीलिए तो वे हमें अपने पास बुलावा भेज देते है। क्या कहा...?? पहाड़ के दिल नहीं होता...?? होता है हुजूर.....कभी उसके कठोर सीने से लिपटकर महसूस करना उनका भी दिल होता है और हमारी ही तरह धड़कता है।  क्योंकि मैंने पहाड़ को किसी के वियोग में रोते हुए महसूस किया है।